छत्तीसगढ़ में जनादेश के मायने… भूपेश का चेहरा क्यों फीका पड़ा?
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त्वरित टिप्पणी। सुरेश महापात्र।
आखिरकार छत्तीसगढ़ में जनादेश का पिटारा खुल गया है। सत्ता परिवर्तन हो गया है। अब कुछ ही घंटे बाद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल अपना त्यागपत्र राज्यपाल को सौंप देंगे। ऐसा दूसरी बार होता दिख रहा है जब छत्तीसगढ़ में बाहर से नहीं दिखने वाली हवा आंतरिक तौर पर आंधी बनकर सत्ता के बरगद को उखाड़ फेंकने में कामयाब हो गई। परिणाम ऐसा कि एक्जिट पोल वाले भी धोखा खा गए! क्या वास्तव में जनता इतनी समझदार हो गई है? या जनता ही समझदार है और नेता बेवकूफ जो सत्ता मिलने के बाद चौंधयाहट से अपनी आंखों की रौशनी खो बैठते हैं।
पांच साल पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह की विकास यात्रा का मॉडल बुरी तरह से पिट गया। इस बार मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की भेंट—मुलाकात वाली फिक्सिंग को जनता ने नकार दिया। अब छत्तीसगढ़ में जनता परिपक्व हो गई है। लोक लुभावने झांसे से निकलकर ईवीएम में अपना वोट डालती है। इस तरह की प्रतिक्रिया देती है कि पूरी सरकार की रंगत पर फरक पड़ जाता है।
ऐसी कौन सी कमी रह गई? यह तो अब भूपेश बघेल जरूर अपने खेत में बैठकर सोचेंगे? उन्हें सोचना ही चाहिए। यदि वे नहीं सोचे तो दुबारा कभी ऐसा मौका नहीं मिलेगा कि वे सत्ता के केंद्र में खुद को खड़ा कर सकें। दरअसल सत्ता का मूल चरित्र होता ही ऐसा है कि उसकी चौंधियाहट में कुछ भी साफ—साफ दिखाई नहीं देता।
सरकार के मुखिया को बस वही दिखाई देता है जो सिस्टम उन्हें परोसता है। सिस्टम वही परोसता है जो उनके हित में होता है। और सिस्टम का हित वही होता है जिसमें जनता सबसे अंतिम होती है और वे खुद को राजा की तरह स्टेब्लिस्ट करते हैं। छत्तीसगढ़ में लगातार दो बार सिस्टम के चलते दो सरकारों का पतन साफ दिखाई दे रहा है। सिस्टम का आकंठ भ्रष्टाचार भले ही चुनावी राजनीति में कभी बड़ा मुद्दा बनता नहीं दिखा पर आम जनमानस ने भ्रष्टाचार को अपने जेहन में रखा।
जिलों में कलेक्टरों ने राज्य सरकार का एजेंट बनकर जमकर भ्रष्टाचार को अंजाम दिया। खबरें बाहर पहुंची भी पर कार्रवाई सिफर रही। सत्ता के केंद्र से जुड़े ताकतवरों को यही लगता रहा कि जमीन में सब कुछ ठीक ही है। पटवारी से शुरू होकर कलेक्टर तक भ्रष्टाचार का जो खेल जमीन पर रहा उससे सत्ता कैसे नावाकिफ हो सकती है।
कई जिलों में राजनीति का केंद्र जिला कलेक्टोरेट हो गए थे। वे वहीं से सत्ता का संचालन करते रहे। निर्माण कार्यों की आड़ में जिस तरह का बंदरबांट डीएमएफ की राशि में दिखा इसकी जिम्मेदारी आप किसके सिर थोपेंगे? जिसने भी शिकायत की उसे निपटा दिया गया। सत्ता के आड़ में होने वाले तमाम गड़बड़ियों को जिसने भी उपर लाने की कोशिश की उसे नाप दिया गया। सच्चाई स्वीकार कर सुधार करने की जगह संतुलन का असंतुलित खेल चलता रहा। जनता देखती रही। अपनी बारी के आने का इंतजार किया।
मैं व्यक्तिगत तौर पर भारतीय जनता पार्टी के सांप्रदायिक एजेंडों के खिलाफ स्वयं को खड़ा देखता हूं। यह मेरा अपना यह विचार है कि मैं किसी भी दल के द्वारा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को सही नहीं मानता पर महज इस आधार पर बहुत सारे मुद्दों और मसलों की अनदेखी नहीं की जा सकती। यह साफ है कि यदि इस एंगल को छोड़ दिया जाए तो भाजपा के पक्ष में बहुत सी बातें हैं। सबसे बड़ी बात संगठन की स्वीकार्यता। शीर्ष नेतृत्व के प्रति समर्पण। अपनी विचारधारा के पक्ष में एकजुट होकर निर्णायक तौर पर सक्रिय रहना। बहुत से लोगों को यह बात सालती रही कि कांग्रेस की मौजूदा सरकार में जमीनी स्तर पर इस तरह की स्थिति थी ही नहीं।
सीएम हाउस ने मीडियाकर्मियों को सीधे निशाने पर लिया। मीडियाकर्मी अदना सा व्यक्ति होता है। उसे केवल देखकर शिकायत का हक होता है। शिकायत का निवारण सत्ता की जिम्मेदारी होती है। उल्टे शिकायतकर्ता को निशाने पर लेना सत्ता का अशोभनीय व्यवहार ही कहा जाता है।
इस तरह का एक नहीं कई व्यवहार मौजूदा सरकार के दौर में साफ दिखाई दिया। दिल्ली में बैठे मीडिया हाउस के सहारे राजधानी के पेशेवर पत्रकारों को नौकरी तक से हटवाया गया। इसी तरह का व्यवहार पूर्ववर्ती रमन सरकार के दौर में भी दिखाई दिया था। पर इस सरकार के दौर में जब मीडिया के दो सशक्त प्रतिनिधि विनोद वर्मा और रूचिर गर्ग साथ थे तो यह बात और भी चिंता को जन्म देने वाली लगी।
जमीन पर सरकार के खिलाफ उठ रहे आवाज को सरकार की मुखालफत नहीं समझा जाना चाहिए। छत्तीसगढ़ में भारी भरकम पूर्ण बहुमत की सरकार का यूं चला जाना। विचारणीय होना ही चाहिए। यह विचार जरूरी है कि मुद्दों से परे किसानों को कर्ज माफी का लालीपॉप पकड़ाने की कोशिश की गई। जिसे लोगों ने नकार दिया। लोगों ने अपने हक का बोनस लेना उचित समझा पर बेगैरत होकर लोन माफी की भीख का खारिज कर दिया। इससे साफ है कि लोग समझते हैं कि किसी भी चीज की एक सीमा होती है।
बस्तर में धर्मांतरण को लेकर जब आग लगी हुई थी तो उसमें सत्ता की भूमिका तटस्थ होकर प्रशासन के हवाले गेंद करने की नहीं थी। बल्कि आगे बढ़कर दोनों पक्षों के सामने सुलह की कोशिश करने की होना चाहिए थी। पर ऐसा तो हुआ नहीं। यह साफ तौर पर वोट बैंक की राजनीति थी। पीसीसी अध्यक्ष दीपक बैज के इलाके में जब यह हवा चली तो वे राजनीति के हवाई जहाज की सवारी पर निकल पड़े। सो जमीन सरकना तय थी।
एक बार फिर छत्तीसगढ़ में सरकार के कद्दावर मंत्रियों को जनता ने सड़क पर ला दिया है। ऐसा क्यों होता है कि मंत्रियों के खिलाफ जनमानस की नाराजगी ईवीएम में दर्ज हो जाती है। यह साफ है कि जनता मंत्रियों के हाव—भाव और उनके तौर—तरीकों पर बारिकी से नज़र रखती है।
शिक्षा विभाग में घोटालों की एक बड़ी फेहरिस्त बाहर आई। बार—बार सामने लाई गई पर गोदपुत्र बने अफसरों से सवाल पूछने तक की जहमत नहीं उठाई गई। स्वास्थ्य विभाग में तमाम कमियों पर बार—बार बात की गई पर जमीन पर थोथा चना बाजे घना वाली कहावत ही चरितार्थ होती रही।
पीएससी की नियुक्तियों में गड़बड़ियों को लेकर जब आवाज उठाई गई तो सरकार ने खुद पर जिम्मेदारी लेने से बचने की कोशिश की। कुल मिलाकर मामले को टालने की कोशिश की। एक बात और की चुनावी अभियान के दौरान केवल राष्ट्रीय मुद्दों के साथ राहुल गांधी का राजनीतिक भाषण छत्तीसगढ़ में किसी काम का साबित नहीं हुआ।
यह सरकार का दायित्व है कि वह अपने स्तर पर ऐसे मामलों से निपटे। अडानी और अंबानी की आड़ में केंद्र सरकार पर किए गए हमलों का यहां की जनता से कोई सरोकार था ही नहीं। जिन मुद्दों पर चुनाव लड़ने की कोशिश की गई वे सारे मुद्दे दरअसल आम जनता के प्रति कृतज्ञता जताने की जगह उस पर एहसान लादने का दंभ प्रदर्शित करती दिखाई दे रही थी।
इतनी बड़ी बहुमत वाली सरकार देने वाली जनता ने अब भूपेश बघेल को उनके तमाम व्यवहार का परिणाम दे दिया है। यहां शांति पसंद लोगों को राम के नाम का सहारा नहीं बल्कि सत्ता के दौरान भगवान श्रीराम जैसा आचरण प्रिय है। माता कौशल्या के नाम पर काम करना तो स्वीकार है पर उनके नाम पर राजनीति अस्वीकार्य है। किसान की मेहनत और धान की कीमत तो जरूरी है पर खजाने का दुरूपयोग नापसंद है।
संभव है अब भूपेश बघेल को सारे सवालों का जहीन जवाब मिल सकेगा। जब वे अपने कमरे में बैठेंगे और डा. रमन सिंह की तरह विचार करेंगे कि आखिर चूक कहां हुई और हर बात पर तमतमाया चेहरा फीका कैसे पड़ गया?