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ना तुम हारे ना हम जीते… चुनौतियों के बीच गुजरा बघेल सरकार का एक वर्ष

  • दिवाकर मुक्तिबोध

किसी सरकार के सौ दिन , दो सौ दिन , तीन सौ पैंसठ दिन और इसी तरह बढ़ते-बढते पाँच वर्ष पूर्ण होने पर स्वाभाविकत: उसके कामकाज का आकलन किया जाता है। सौ दिन व दो सौ दिन तो ख़ैर महत्व रखते ही हैं पर हाँ एक वर्ष पूर्ण होने पर अंदाज हो जाता है कि ट्रेन पटरी पर ठीक से दौड़ रही है कि नहीं और उसकी गति क्या है। छत्तीसगढ की कांग्रेस सरकार को इसी दिसंबर में एक साल पूर्ण हो गए। इस अवधि में से एप्रिल-मई में सम्पन्न हुए लोकसभा चुनाव व नगरीय निकायों के चुनाव की तैयारियों के पाँच महीनों को निकाल दिया जाए तो सरकार के पास सात माह ही बचते हैं जो वास्तविक कामकाज के महीने हैं। इन महीनों में सरकार का कामकाज कैसा रहा तो एक पंक्ति में यह बात निकलकर आती है कि- सामान्य लेकिन उम्मीदों भरा। इस दरमियान सरकार का समूचा ध्यान पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र में जनता से किए गए वायदों पर केन्द्रित रहा और उनमें से काफी कुछ पर सैद्धांतिक रूप से अमल किया जा चुका है। फिर भी बहुतेरे कारणों से जिनमें राजनीतिक व प्रशासनिक प्रमुख है, ट्रेन वह गति नहीं पकड़ सकी है जिससे सुखद हवा का अहसास हो। किंतु यह अच्छी बात है कि वह पटरी पर है और चाल तेज़ करने की कोशिश कर रही है।

दरअसल भूपेश बघेल सरकार को विरासत में गंभीर समस्याओं का अंबार मिला जिनसे उबरना आसान नहीं है और इसमें समय लगना स्वाभाविक है। इसलिए यह मामला अलादिन के चिराग़ की तरह नहीं है कि मन माफ़िक़ नतीजे तुरंत मिल जाए। 17 दिसंबर 2018 को भूपेश बघेल के नेतृत्व में कांग्रेस ने सत्ता सँभाली और 15 साल पुरानी भाजपा सरकार का अंत हुआ। इसमें दो राय नहीं है कि भाजपा सरकार ने अपने कार्यकाल में भौतिक संरचनाओं के विकास पर बहुत काम किया और शहरी जीवन को कुछ हद तक सुविधाजनक बनाया लेकिन ख़ज़ाना ख़ाली कर दिया । काम हुआ तो भ्रष्टाचार भी जमकर हुआ। बल्कि यह कहा जा सकता है कि विकास योजनाओं जरिए पैसे बनाने की नीयत से अरबों-ख़रबों के काम निकाले गए जिनकी गुणवत्ता प्रश्नांकित है। भ्रष्टाचार के बाद दूसरी बडी समस्या प्रशासनिक अराजकता की रही है और यह तय है कि कोई भी सरकार अपनी जनकल्याणकारी योजनाओं को सफलतापूर्वक तभी लागू कर सकती है जब उसे नीचे से लेकर उपर तक प्रशासनिक अमले का साथ मिले। भूपेश बघेल सरकार ने प्रारंभ में अपना प्रभाव कायम करने व नौकरशाही को कड़ा संदेश देने के लिए ताबड़तोड़ कार्रवाई की । उसने भ्रष्ट अफ़सरों को नापना शुरू किया । पुराने मामलों की नए सिरे से जाँच शुरू करवाई और लगभग समूची सरकारी मशीनरी में फेरबदल कर दिया। थोक में बेमौसम तबादले , पैसों का लेनदेन व अव्यवहारिक पदस्थापनाओं की वजह से उसकी किरकिरी भी हुई । लेकिन अब उसकी समझ में आ गया है कि फ्यूज बल्बों को धीरे-धीरे बदलना ही ठीक रहेगा लिहाजा वह ज़रूरत पडने पर धमकाकर -पुचकारकर शासन -प्रशासन के नुमाइंदों को साधने का प्रयत्न कर रही है। उसकी कोशिश है कि बहुप्रचारित लोककल्याणकारी योजनाओं का लाभ आख़री छोर पर बैठे व्यक्ति तक पहुँचे इसलिए कार्य संस्कृति में परिवर्तन किया गया है जिसकी वजह से सत्ता और संगठन के बीच बेहतर तालमेल व परस्पर विश्वास का वातावरण बनता दिख रहा है।

इस दिशा में सरकार के प्रयासों को इस रूप में भी देखा जा सकता है कि कड़े वित्तीय अनुशासन के साथ-साथ शानदार वातानुकूलित कक्षों में बैठकर गुणा-भाग करने वाले अफसर ज़मीनी हक़ीक़तों से रूबरू होने बाहर निकल पड़े हैं। वे स्कूटर – मोटर साइकिलों पर कार्यस्थलों का जायज़ा ले रहे हैं। पहल नवनियुक्त मुख्य सचिव आर पी मंडल ने की जो नौकरशाही के लिए प्रेरणास्पद है। ऐसा पहली बार देखा गया कि राजधानी में राज्य का सर्वोच्च अधिकारी अलसुबह कार छोड़कर स्कूटर से विकास कार्यों का अौचक निरीक्षण करने पहुँच जाए तथा इन दिनों सबसे महत्वपूर्ण कार्य , किसानों से धान ख़रीदी के कामकाज का अवलोकन करने कृषि उपज मंडियों का दौरा करे। इससे यह संकेत मिलता है कि शासन -प्रशासन में अब कसावट आ रही है जिससे उम्मीद कर सकते हैं कि आम जनता के काम तयशुदा समय पर होंगे तथा सरकार बेरोज़गारी और उद्योग जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे जो लगभग अछूते हैं पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकेगी।

कांग्रेस सरकार ने सत्ता संभालते ही छोटे-बडे निर्णय फटाफट ले लिए। मसलन कृषकों की क़र्ज़ माफ़ी, छोटे भूखंडों की रजिस्ट्री को अनुमति , नक्सली होने के आरोप में वर्षों से जेलों में बंद आदिवासियों के मामलों पर पुनर्विचार, लोहांडीगुडा बस्तर में टाटा द्वारा अधिग्रहीत भूमि को आदिवासियों को लौटाना, बिजली उपभोक्ताअों को राहत , अनुसूचित जाति, जनजाति व पिछड़ों को आरक्षण में वृद्धि , नई स्वास्थ्य नीति , कुपोषण के ख़िलाफ़ महाअभियान जैसे आम जनता से जुड़े कई फैसले जो मन:स्थिति को प्रभावित करते हैं और सरकार पर विश्वास जगाते हैं। निर्णय तो हुए किंतु उन पर अमल की रफ़्तार सुस्त रही। क़र्ज़ तो माफ़ हुआ लेकिन वायदों के मुताबिक़ काम नहीं होने से किसानों की शिकायतें बनी हुई हैं और वे अनेक कारणों से आंदोलित है। इस समय धान ख़रीदी सबसे बडा मुद्दा है। एक तो ख़रीदी लेट शुरू हुई और प्रारंभ में प्रति एकड ख़रीदी की सीमा तय होने से व्यापक विरोध हुआ परिणामत: मुख्यमंत्री को कहना पड़ा कि उपार्जित पूरा धान क्रय किया जाएगा। दरअसल सरकार किसानों के सवालों को सुस्पष्ट तरीक़े से हेंडिल नहीं कर पा रही है जबकि इसी मुद्दे पर कांग्रेस को भारी समर्थन मिला व उसने 15 वर्षों से सत्ता पर क़ाबिज़ भाजपा को बाहर का रास्ता दिखाया। चुनावी वायदे के मुताबिक़ किसानों को 2500 रूपए प्रति क्विंटल का भुगतान करने उसे केन्द्र सरकार से मदद की दरकार थी और उसे उम्मीद थी कि वह सेंट्रल पूल में अतिरिक्त चावल लेने के अनुरोध को स्वीकार करेगी लेकिन केन्द्र के इंकार के बाद बघेल सरकार ने राजनीतिक कारणों से टकराव का रास्ता अपना रखा है जो राज्य के हित में नहीं है। प्रदेश के बाहर के बिजली संयंत्रों को कोयले की निकासी रोकने की चेतावनी व बीस हज़ार कार्यकर्ताओं के साथ दिल्ली में प्रदर्शन तो और भी बेतुकी बात थी। किसी तरह प्रदर्शन तो टल गया लेकिन इससे सरकार व संगठन की भद पिटी। वैसे भी केन्द्र से टकराने का अंजाम क्या होता है उसका बडा उदाहरण दिल्ली की केजरीवाल सरकार है जिसे तीन साल तक जूझने के बाद आख़िरकार हथियार डालने पड़े। अत: राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को परे रखकर बघेल सरकार को भी कुछ ऐसा करना होगा ताकि केन्द्र सरकार खुले मन से राज्य की मदद के लिए आगे आए। यह अच्छी बात है कि राज्यपाल सुश्री अनुसूईया उइके इस मामले में राज्य सरकार को सहयोग कर रही है और उन्होने भी धान के विषय में केन्द्र को पत्र लिखा है। लेकिन ऐसा लगता है कि मोदी सरकार के अड़ियल रूख को देखते हुए बघेल सरकार को अपना इंतज़ाम खुद करना होगा। फिलहाल वह किसानों से समर्थन मूल्य 1835 रूपए में धान ख़रीद रही है । अंतर की शेष राशि 665 रूपये अलग से देने का वायदा किया है और इसके लिए प्रक्रिया तय करने समिति गठित की है। धान ख़रीदी की प्रक्रिया आगामी फ़रवरी तक चलने वाली है। यानी सरकार के पास इंतज़ाम के लिए वक्त है। पर यदि वायदे के अनुसार सम्पूर्ण राशि 2500 का तुरंत भुगतान होता तो बात कुछ और होती। इससे किसानों के मन में सरकार के प्रति विश्वास व संतोष का भाव और बढ़ता। फिलहाल वह ज़ख़्मी है। किसान मायूस व आशंकित है।

इस एक वर्ष में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने जनमोर्चे पर अपूर्व सहजता व सरलता दिखाकर पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह की लोकप्रिय छवि से आगे बढ़ने एवं सांस्कृतिक तौर-तरीक़ों से स्वयं को मूल छत्तीसगढ़िया सिद्ध करने की कोशिश की है और इसमें वे कामयाब भी है। राजनीतिक फ़्रंट पर भी उन्हें कोई चुनौती नहीं है। न विधान सभा के भीतर न बाहर । विधान सभा तो ख़ैर ठीक है लेकिन प्रदेश भाजपा जिस स्थिति में नज़र आ रही है उसे देखते हुए ऐसा लगता है कि 15 वर्षों तक सत्ता का सुख भोगने के बाद वह प्रखर विपक्ष की भूमिका में स्वयं को पूर्णत: ढाल नहीं पाई है। वैसे भी इसी 24 दिसंबर को नगर निकाय व नगर पंचायतों के चुनाव के नतीजे इस बात की पुष्टि करेंगे कि एक साल में भाजपा की स्थिति कितनी सुधरी या वह और कमज़ोर हुई। यह भी जाहिर होगा कि कांग्रेस मतदाताओं के भरोसे को किस हद तक कायम रख पाई या भाजपा ने उसे कितनी चोट पहुँचाई अथवा उसका जनाधार कितना कमज़ोर किया।

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