आप यूं समझें कि “अभिव्यक्ति” की राह निर्बाध करने का क़ानून है…
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सुरेश महापात्र।
छत्तीसगढ़ में मीडिया से जुड़े सभी तरह के लोगों की सुरक्षा के लिए बनाया गया क़ानून पास हो गया है। इस क़ानून के पास होते ही हिंदुस्तान में छत्तीसगढ़ ऐसा दूसरा राज्य हो गया है जहां पत्रकारिता की राह को निर्बाध करने की कोशिश की गई है।
संविधान की धारा 19(अ) में अभिव्यक्ति की आज़ादी दर्ज है। संविधान की मूल भावना के अनुरूप अभिव्यक्ति के लिए राह तो तैयार कर दी गई पर इसमें आने वाली बाधाओं को लेकर लंबे समय से सवाल उठते रहे हैं। विशेषकर हिंदुस्तान में आपातकाल के दौरान पत्रकारिता की चुनौतियों का ज़िक्र अक्सर होता रहा है।
उस दौर में पत्रकारिता की चुनौतियों को संविधान की मूल भावना के खिलाफ माना गया। कमोबेश आज भी कई राज्यों में यही हालात हैं। छत्तीसगढ़ में भी मीडियाकर्मियों की चुनौतियों को लेकर कई बार सवाल उठता रहा है। छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद बहुत से पत्रकार प्रताडना के शिकार हुए।
कई पत्रकार माओवादियों के हत्थे चढ़े। बस्तर में काम करने वाले साईं रेड्डी और नेमीचंद जैन की हत्या माओवादियों ने कर दी। सलवा जुड़ूम के दौरान और उसके बाद बहुत से पत्रकार पुलिस प्रताड़ना के शिकार हुए। जमीनी हकीकत को बयान करने की सबसे बड़ी कीमत बस्तर का पत्रकार चुकाता रहा है। प्रशासन के कोप का भाजन बनना और पुलिस की कार्रवाई का शिकार होना बस्तर में पत्रकारिता की सबसे बड़ी चुनौती रही है।
माओवाद-पुलिस की दोधारी व्यवस्था में “सच” के पक्ष में खड़ा होना सबसे बड़ी मुसीबत रहा है। जब छोटे से गाँव में एक अख़बार का प्रतिनिधि माओवादी मामले में पुलिस द्वारा फँसा दिया गया तो उसे बचाने के बजाय अख़बार ने उसे अपना प्रतिनिधि तक मानने से इंकार कर दिया था। यह भी बस्तर की पत्रकारिता के इतिहास का हिस्सा है।
कांकेर में पत्रकार कमल शुक्ला के साथ जो कुछ हुआ। इस मामले की जाँच कमेटी में मैंने एक सदस्य रहते जो कुछ देखा व समझा उसने स्थापित किया कि शक्तिशाली के खिलाफ उठने वाली हर आवाज़ को दबाने के लिए रास्ते बहुत हैं पर अभिव्यक्ति को संरक्षण देने के लिए कोई क़ानूनी प्रावधान ही नहीं है। जहां प्रथमदृष्ट्या सुनवाई की जा सके।
कांकेर में पत्रकार कमल शुक्ला सके साथ हुई घटना के बाद एक बात छत्तीसगढ़ में पहली बार हुई थी कि “पत्रकार के साथ हुई घटना की जाँच का काम वैधानिक तौर पर राज्य सरकार ने पत्रकारों की कमेटी को ही सौंपा।”
कमेटी ने अपने प्रतिवेदन में कुछ सुझाव दिए थे। संभवतः यह भी पत्रकार सुरक्षा क़ानून की दिशा में सरकार का एक कदम ही था। पत्रकार की प्रताड़ना को परिभाषित करना आसान नहीं था। सो अब छत्तीसगढ़ में ऐसे मामलों की प्रारंभिक जांच के लिए क़ानूनी तौर पर क्रियाशील कमेटी होगी।
जिसके पास सजा देने का प्रावधान भी होगा। यह कदम निश्चित तौर पर ऐतिहासिक है। 22 मार्च 2023 का यह दिन छत्तीसगढ़ में “अभिव्यक्ति के आज़ादी का दिवस” के तौर पर दर्ज किया जाना चाहिए।
बशर्ते जिन प्रावधानों के साथ क़ानून लागी किया गया है उसके क्रियान्वयन के लिए नियमों को दर्ज करने के दौरान कमजोर कड़ी ना छोड़ दी जाए।
बड़ी बात यह है कि पत्रकार सुरक्षा क़ानून प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, डिजिटल मीडिया के तमाम हिस्सों के साथ गांव क़स्बों के पत्रकार और छह महीने में कम से कम तीन लेख लिखने वाले हर नागरिक को पत्रकार का दर्जा दिलाने की कोशिश दिखा रहा है।
यूट्यूब और फ़ेसबुक पर भी अभिव्यक्ति की आज़ादी का दरवाज़ा सरकार ने खोल दिया है। हालिया दिनों में फ़ेसबुक पर लिखे आलेख के कारण बहुत से लोग मुसीबत का शिकार हुए हैं। ऐसे लोगों के लिए भी पत्रकार सुरक्षा क़ानून का दायरा बढ़ाने से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नया आयाम मिल सकेगा।
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने निश्चित तौर पर बस्तर के बीहड़ में पत्रकारिता के ख़तरे को गहरे से भांप लिया है। हम यह कह सकते है भूपेश के भागीरथी प्रयास के आने वाले दौर में पत्रकारिता के लिए, हर नागरिक की अभिव्यक्ति के लिए और सोशल प्लेटफ़ॉर्म पर सक्रिय लोगों के लिए यह क़ानून संरक्षण का काम करेगा।