कहानीः बहाने से
-संजय विद्रोही-
सड़क से देखने पर लगता था कि दूर कहीं आसमान से थोड़ा नीचे एक ऊंची-सी चीज के बदन पर एक जुगनू चिपक कर टिमटिमा रहा है. गौर से देखने पर मालूम पड़ा कि एक बहुमंजिला इमारत की ऊपरी मंजिल के किसी फ्लैट की किसी खिड़की से रोशनी की कुछ बदहवास लकीरें बेवजह बाहर झांक रही हैं. इमारत में घुसिए, लिफ्ट को ट्राई करें? बंद पड़ी है ना?! इस लिफ्ट का सदा ये ही हाल रहता है. चलो , सीढ़ियाँ/ पकड़ते हैं. चले आओ. चढ़ते जाओ. मंजिल दर मंजिल एक सूनापन चुपचाप, बिना किसी हलचल के सारी फ्लोर पर पसरा पड़ा है. सूई गिरने जितनी आवाज भी जिसको बर्दाश्त नहीं है. जरा सी आहट होते ही खामोश सन्नाटा जोर से चीख पड़ता है. सूई भी गिरती है तो बेचारी गिरते ही सहम जाती है और देर तक उसकी डरी हुई सांसों का आरोह-अवरोह माहौल में सुनाई देता रहता है. लेकिन आप इन सब बातों में मत पड़िये. चलते रहिए, चढ़ते रहिए बस. दम फूलने लगा ना? घबराइये मत. अक्सर चलते-चलते हांफने लगना जीवित होने का स्वयंसिद्ध प्रमाण है. अन्यथा लोग तो ऐसे भी हैं, जो चुपचाप बिना किसी आवाज के चले जा रहे हैं. निश्शब्द. साले मुर्दे कहीं के. किन्तु आपको बधाई. क्योंकि आप हांफ रहे हैं. क्योंकि आप जिंदा हैं. चढ़ते-चढ़ते, लीजिए हम उस फ्लोर पर आ गए हैं. जिसके किसी फ्लैट की किसी खिड़की से रोशनी की कुछ बदहवास लकीरें बेवजह बाहर झांक रही थी. दम ले लीजिए जरा. फिर देखते हैं, भीतर क्या है?
दरवाजे पर धातु की महंगी-सी नाम-पट्टिका टंगी है, चमचमाती हुई. पट्टिका पर लिखा है अनुरिक्ता दासगुप्ता. आपको नहीं लगता कि खाली 'अनुरिक्ता' होता तो ज्यादा अच्छा होता ? बेकार में 'दासगुप्ता' को साथ में लटकाना जरूरी है क्या? अनुरिक्ता, जो कि तीसेक बरस की एक नौकरीपेशा लड़की है और इस महानगर में अकेली रहती है. आम लड़कियों ही की तरह जो सुन्दर है, जवान है, आधुनिक है, आकर्षक है, 'मादक' है. पर आम लड़कियों से भिन्न, जो बोल्ड भी है. जो अपने जीवन को अपनी मर्जी से, अपनी शर्तों पर ,बगैर किसी की परवाह किए जीती है और भरपूर जीती है. चलो, दरवाजा खटखटाते हैं. ठक. चिर्ररररर. अरे! ये क्या? ये तो खुल ही गया. चलो, अच्छा हुआ. बेकार वो परेशान होती, दरवाजा खोलने उठकर आती. क्या पता किस हाल में हो? लड़कियों के साथ ये भी तो चक्कर है. एक मद्धिम रोशनी से भरे गलियारे के बाद एक जगमगाता हॉल है, आइए इधर बैठते हैं. छोटी-छोटी मोढ़ियों जैसी कुशन लगी चार सुरुचिपूर्ण कुर्सियाँ पड़ी हैं. बीच में एक ग्लास टॉप वाली सेंटर टेबल पड़ी है. जिस पर कुछ अँग्रेज़ी के अखबार और एक फैशन एण्ड लाइफ़ स्टाइल वाली मैगजीन खुली पड़ी है. एक एश-ट्रे भी पड़ी है. जिसमें पड़े सिगरेट के कुछ अधजले टोंटे अपने जीवन की निरर्थकता का रोना आलाप रहे हैं. सामने एक टीवी रखा है, रंगीन है शायद. वैसे भी आजकल ब्लैक एण्ड व्हाइट चीजें पसन्द किसे आती हैं. सबको सबकुछ 'रंगीन' चाहिए. दाँये हाथ की तरफ वाली दीवार पर एक बड़ी पेंटिंग टंग रही है. जिसमें एक षोड़सी कन्या को स्नान करते हुए दिखाया गया है. जिसके दोनों अनावृत वक्षपिण्ड ऐसे सुडौल हैं कि बरबस ही देखने वाले के शरीर में 'कुछ' होने लगता है. लम्बी चिकनी मांसल जाँघें भी हाहाकारी प्रतीत होती हैं. हर आने वाला कुछ देर रुककर इसको जरूर देखता है. आप भी रुक गए ना? छोड़िए भी.
अब इधर देखिए. हाई-फाई ऑडियो सिस्टम रखा हुआ है. ऑन करें? चलो, करते हैं. कोई ग़ज़ल की सीडी लगी है. ग़ज़ल सुनना भी फैशन-सा हो गया है आजकल. हल्का संगीत तैरने लगा है माहौल में, खुशबू की तरह. क्या घर में कोई नहीं है? शायद न हो. शायद कहीं बाहर गया होगा. माफ करें, गई होगी. तो चलो, मौके का फायदा उठाएँ. एक राउंड ले लेते हैं. हॉल के अलावा केवल एक कमरा और है. हॉल में खुलने वाला यह कमरा बेडरूम है. बेड पर एक जोड़ा ब्रेज़ियर और पैंटी बेतरतीब सी पड़ी है. शायद पहनी हुई थी, उतार के पटकी हुई जान पड़ती है. कढ़ाईदार अन्त:वस्त्र काफी मंहगे हैं, जानते हैं आप? अंदर के वस्त्रों पर इतना पैसा खर्च करने का क्या औचित्य? शायद हो. बैड के सिरहाने आसमानी कलर की एक मख़मली नाइटी भी इसी तरह पड़ी है. जैसे कपड़े बदलते समय जमीन पर गिर गई हो. घिर्रा बनाकर और लापरवाही से उठाकर पटक दी गई हो बैड पर. बैड पर गुलाबी रंग की चादर बिछी है. सलवटें अभी भी जिस पर रात के सफर का जिक्र करने में व्यस्त हैं. दो हल्के आसमानी कलर के तकिए भी हैं. जो काफी दूर-दूर पड़े हैं. दूर-दूर क्यों? कुछ भी हो सकता है साहब. क्या सोचने लगे आप? यही ना कि एक अकेली लड़की के कमरे में दो तकिए क्यों? अरे भई! आप तो समझते नहीं हो. आजकल एक्स्ट्रा तकिए का फैशन है. बगैर उसके नींद कहाँ आती है किसी को. हल्के पीले रंग के परदे से ढंकी यहाँ एक खिड़की भी है. जिससे आसमान साफ दिखाई देता है और धरती धुंधली. यही वह खिड़की है जिससे छनकर आ रही रोशनी आपको सड़क पर से देखने पर जुगनू जैसी जान पड़ी थी. अरे! ये क्या? किसी की फोटो के टुकड़े पड़े हैं जमीन पर. किस की फोटो है? शायद लड़के की. या शायद लड़की की. नहीं, एक लड़का और एक लड़की की है. फाड़ी किसने? शायद लड़के ने. या शायद लड़की ने. देखो, उधर लैम्पशेड के पास रखी एश-ट्रे पर एक बुझी हुई आधी सिगरेट भी रखी है. शायद कोई मर्द था यहाँ. हाँ. लेकिन क्या लड़कियाँ सिगरेट नहीं पी सकतीं? क्यों नहीं पी सकतीं? पर आपको नहीं लगता एक अकेली जवान लडकी के बेडरूम में एक मर्द की कल्पना करना ज्यादा आनन्दित करने वाला होगा. तो क्यों ना मान लें कि कोई मर्द ही था यहाँ. फोटो के टुकड़ों में भी तो एक मर्द का चेहरा नजर आ रहा है. है ना? आओ अब कल्पना करें, यहाँ क्या हुआ होगा? कोशिश करने में क्या जाता है? नहीं? मान लो यहाँ रहने वाली लड़की यानी अनुरिक्ता का किसी लड़के से 'लकड़ा' चल रहा है. मान लो उसका नाम विवेक है. विवेक अकसर इस लड़की के यहाँ आता जाता है. खाता पीता है. रहता सोता है. कहने का मतलब है कि देअर इज एन इंटीमेट रिलेशनशिप बिटवीन दैम. पिछले कुछ बरसों से ऐसा ही चल रहा है. कई बार दोनों वीकएंड पर घूमने भी साथ गए हैं. साथ-साथ इतना वक्त गुज़ारते हैं, तो साथ में फोटो होना भी लाजिमी है. आपको पता है अनुरिक्ता फैशन डिजाइनर है? उसके रहनसहन से, घर के बनावसिंगार से नहीं लगता आपको? विवेक भी इसी लाइन का आदमी है. वो एक एड एजेंसी चलाता है. एक ही लाइन में होने पर रिश्तों में प्रगाढ़ता आ जाने की संभावनाएँ कई गुना बढ़ जाती हैं. लेकिन कई दफा रिश्तों की कलई खुल जाने में भी वक्त नहीं लगता. शुरुआती दोस्ती के बाद दोनों के बीच गहरे रिश्ते बन गए थे. दोनों ने भावना की आग में शरीरों को तापना शुरू कर दिया था. तपे हुए शरीरों पर कब कोई ओस की बूंद टिकी है? ओस का मतलब तो एक अनछुई, नाजुक, निर्मल हंसी है. छू दिया, मानो सब खत्म. प्यार भी देह की दहक के सामने यूं ही उड़ता है. तब शुरू होती हैं अपेक्षाएँ. हर वक्त मेरे ही साथ रहो. मेरे ही बारे में सोचो. मुझसे ही बातें करो. हर रात मेरे ही साथ सोओ. किससे बातें कर रही थी? किसके साथ घूम रही थी? क्या दादागिरी है भई? विवेक भी अगर यही सब सोचता हो तो क्या गलत नहीं है?
आज रात भी ऐसा ही कुछ हुआ. घड़ी देख रहे हैं आप? अभी रात का एक बज रहा है. तब शायद दस बजे का वक्त रहा होगा. टीवी देखने के बाद इस कमरे में दोनों आए. बगैर एक मिनट का भी समय गंवाये दोनों ने अपने आपको वस्त्रों और अन्त:वस्त्रों के बन्धन से मुक्त किया और धधकती देहों को वासना की भट्टी में झोंक दिया. उसी के निशानात हैं, ये बिखरे हुए अन्त:वस्त्र और सिमटी हुई बेडशीट. दूर-दूर पड़े तकिए भी? नहीं. ये कुछ और दास्ताँ कह रहे हैं. अनुरिक्ता एक सोशलगर्ल है. देर रात भड़कीली पार्टियों में रहना. रोज नए-नए लोगों से मिलना . तरह तरह के मर्दों से घुलना मिलना. कभी काम से और कभी 'काम' से साथ में रहना, घूमना. ऐसे में विवेक का ये समझ लेना कि वो सिर्फ उसी की जागीर है. उसी के साथ रहने-खाने-सोने के लिए बनी है. तो बताओ क्या होगा? यही ना कि तकिए उठा-उठा कर फेंके जाएँगे. हवा में हाथ हिला-हिला कर चिल्लाया जाएगा. सिगरेट पीते-पीते बीच ही में एश-ट्रे में रख दी जाएगी और लेटेस्ट फोटो जो कि दिखाने के लिए लाई गई थी, चिंदी-चिंदी करके हवा में उछाल दी जाएगी. आनन-फानन में तब पैंट चढ़ाकर, शर्ट के बटन बंद करता हुआ वो चला जाएगा. बड़बड़ाता हुआ.
पीछे-पीछे ही जल्दबाजी में अनुरिक्ता भी नाइटी हटाकर स्कर्ट-टॉप डालेगी. नीचे गिरी नाइटी को उठाकर बैड पर फेंकेगी और विवेक के पीछे-पीछे धड़धड़ करती सीढ़ियाँ उतर जाएगी. आखिर देह की आग भी तो अपनी जगह है
चलो, घर देख लिया आपने. अच्छा हुआ. घर और घर में रहने वाली के बारे में काफी कुछ जान गए आप, पहली ही विजिट में. ये भी जान गये कि आजकल वो अकेली है. जाएँगे अब? ओके गुड नाईट. ओ! सॉरी. गुड मॉर्निंग. सी यू. एक्सक्यूज मी, मे आय इन्ट्रोडयूज माईसेल्फ, प्लीज़? आप कहेंगे 'श्योर, व्हाई नाट?' मैं कहूंगी, 'माई सेल्फ अनुरिक्ता'.