विस्थापितों के संकट का सामना किया था नेहरू ने…
सुदीप ठाकुर.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च की रात जब देशव्यापी लॉकडाउन लागू करने की घोषणा की थी, तो संभवतः इसका अंदाजा नहीं था कि लाखों लोग अपने घरों के लिए निकल पड़ेंगे। ये कौन लोग थे? इसका उत्तर तलाशे बिना सरकार, मीडिया, सोशल मीडिया, नीति नियंता, औद्योगिक जगत, बुद्धिजीवी और साहित्यकार यहां तक कि आम जन ने उनके लिए एक शब्द चुना और वह है ‘माइग्रेंट लेबर’ या प्रवासी मजदूर।
सरकार के एक कदम से यह प्रवासी मजदूर अपने घर लौटने लगा। उसने सरकार से कोई खास अपेक्षा भी नहीं की, शायद उसे बहुत उम्मीद भी नहीं थी। मगर इन दो महीनों के दौरान हमने एक ऐसी परिघटना को देखा जिसे ‘रिवर्स माइग्रेशन’ कहा जा रहा है, यानी विपरीत दिशा में पलायन। यह विपरीत दिशा उनके घर की ओर जाती है।
घर लौटना ‘विपरीत’ कैसे हो सकता है! यह समय कैसी-कैसी नई शब्दावलियां गढ़ रहा है, यह अलग विचार का विषय है। लेकिन घर लौटते लाखों मजदूरों ने घड़ी की सुई को 73 वर्ष पीछे धकेल दिया है, जब आजादी मिलने के साथ ही देश को विभाजन की त्रासदी से गुजरना पड़ा था। उस समय देश की पहली सरकार को विभाजन की वजह से हो रहे विस्थापन के कारण आज से कहीं अधिक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा था।
इन दिनों जब अक्सर पंडित जवाहर लाल नेहरू को ‘विलेन’ और ‘विदूषक’ की तरह पेश किए जाने की कोशिश होती रहती है, यह देखना एक सबक की तरह हो सकता है कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ने इस चुनौती का किस संवेदनशीलता के साथ सामना किया था।
आगे बढ़ने से पहले स्पष्ट कर दूं कि विभाजन की वजह से हुए विस्थापन और आज हो रहे प्रवासी मजदूरों के पलायन की प्रकृति और कारण में मौलिक अंतर है, लेकिन ये दोनों मानवीय त्रासदियां हैं, इससे कौन इंकार कर सकता है।
विभाजन के बाद जो नया देश पाकिस्तान के नाम से बना था, वह दो हिस्सों में बंटा हुआ था, पश्चिमी पाकिस्तान ( यानी आज का पाकिस्तान) और पूर्वी पाकिस्तान (यानी आज का बांग्लादेश)। 15 अगस्त, 1947 के तुरंत बाद भय, आशंका, और असुरक्षा के बीच बड़ी संख्या में शरणार्थियों का भारत आने का सिलसिला शुरू हो गया था।
इन शरणार्थियों को विस्थापित भी कहा जा रहा था। 1950 के आते आते पश्चिमी पाकिस्तान से आने वाले विस्थापितों की संख्या सीमित हो गई थी, लेकिन पूर्वी पाकिस्तान से लगातार विस्थापितों का आना जारी था। आजादी के बाद 1951 में कराई गई पहली जनगणना में उस समय देश के तीसरे महानगर कलकत्ता की कुल आबादी में 27 फीसदी आबादी पूर्वी पाकिस्तान से आए बांग्ला शरणार्थियों की थी! (http://www.catchcal.com/kaleidoscope/people/east.asp) इनमें से अधिकांश पूर्वी पाकिस्तान से आए बांग्ला शरणार्थी थे।
इस बीच, पंडित नेहरू ने एक जनवरी, 1950 को नागपुर में एक पत्रकार वार्ता में कहा, ‘पश्चिम बंगाल को किसी भी प्रांत और देश के किसी भी हिस्से की तुलना में विभाजन और उसके बाद की घटनाओं का असर अधिक झेलना पड़ा है। पंजाब को भी कष्ट उठाने पड़े हैं जहां नरसंहार हुए, वहीं आर्थिक रूप से पश्चिम बंगाल को अधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ा।’ ( द लाइफ ऑफ पार्टीशनः ए स्टडी ऑन द रिकंस्ट्रक्शन ऑफ लाइव्स इन वेस्ट बंगाल)।
इसी बीच इसी मुद्दे पर संसद में बहस के दौरान सुचेता कृपलानी ने कहा, ‘देश के विभाजन का फैसला पश्चिम बंगाल ने नहीं लिया था, बल्कि यह फैसला हिंदुस्तान का था, इसलिए यह शरणार्थी समस्या पूरे देश की है और सभी राज्यों को पुनर्वास में हिस्सेदारी बंटानी चाहिए।’
कोरोना के संकट काल में अभी संसद और राज्यों की विधानसभाएं स्थगित हैं। प्रधानमंत्री ने महामारी फैलने और लॉकडाउन के दौरान विपक्षी नेताओं के साथ संभवतः एक बार ही वीडियो कांफ्रेंस के जरिये चर्चा की है। वह राज्यों के मुख्यमंत्रियों से पांच बार ऐसी चर्चा कर चुके हैं। मगर विभाजन के बाद की सबसे बड़ी त्रासदी पर अब तक संसद में कोई बात नहीं हुई है, क्योंकि बजट सत्र को नियत तिथि से 13 दिन पहले 22 मार्च को स्थगित कर दिया गया।
अब जरा पीछे लौटिये। पूर्वी पाकिस्तान के विस्थापितों को पहले तो असम, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे राज्यों में बसाया गया। उनकी संख्या जब बढ़ने लगी तो सरकार को उनके लिए नई जगहें तलाशनी पड़ी। संसद में तो इस पर लगातार संवाद होता रहा, उससे बाहर राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठकों में भी इस पर गहन विमर्श हुआ। खुद नेहरू इस मुद्दे को गंभीरता से ले रहे थे। छह मई, 1955 को राष्ट्रीय विकास परिषद की चौथी बैठक हुई जिसमें चर्चा तो दूसरी पंच वर्षीय योजना पर होनी थी, मगर नेहरू ने भोजनवाकाश के बाद उस दिन के सबसे आखिरी बिंदु विस्थापितों के मुद्दे पर सबसे पहले चर्चा शुरू करवा दी।
उन वर्षों में हुई राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठकों के ब्यौरे बताते हैं कि प्रधानमंत्री नेहरू, उनकी पूरी केबिनेट और राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच किस तरह लोकतांत्रिक मर्यादा में रहते हुए खुल कर चर्चा होती थी। नेहरू मंत्रिमंडल में बकायदा मेहरचंद खन्ना शरणार्थी और पुनर्वास मामलों के मंत्री थे। आज प्रवासी मजदूरों का संकट जिस रूप में सामने आया है, उसमें उनके लिए अलग मंत्रालय के बारे में क्यों विचार नहीं हो सकता?
आखिरकार जब विस्थापितों को 80 हजार वर्ग मील में फैले दंडकारण्य में बसाने पर सहमति बनी तो उससे पहले काफी विचार विमर्श हुआ। यहां तक पहुंचने से पहले नेहरू ने विस्थापितों को बसाने के लिए जगह की उपलब्धता जानने के लिए तकरीबन हर मुख्यमंत्री से सुझाव मांगे। मुख्यमंत्रियों ने भी सुझाव देने और अपनी मुश्किलें बताने में कमी नहीं की। इन बैठकों में आए सुझावों से पता चलता है कि उस समय देश के सामने आधारभूत संरचना के निर्माण की कैसी चुनौती थी। पुराने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल से जब नेहरू ने बस्तर के बारे में पूछा तो उनका जवाब था, ‘हां, ऐसा संभव है, बशर्ते की जंगलों की कटाई हो और संपर्क के लिए 120 मील तक सड़कों का निर्माण कराया जाए।’
बाद में दंडकारण्य प्रोजेक्ट परियोजना बनी, जिसके तहत विस्थापितों को बसाने की पहल की गई, मगर उसकी अपनी दिक्कतें थीं। जो लोग पूर्वी पाकिस्तान से आ रहे थे उनके लिए दंडकारण्य की पारिस्थितिकी अनुकूल नहीं थी। विस्थापितों को बसाने को लेकर स्थानीय आदिवासियों की ओर से विरोध का भी सामना करना पड़ा था।
नेहरू चाहते तो इतनी मशक्कत नहीं करते। उनका पीएमओ एक रिपोर्ट तैयार कर उसे मुख्यमंत्रियों को सौंप सकता था, क्योंकि उस समय तो सारे मुख्यमंत्री कांग्रेस के ही थे! आज उनकी पुण्यतिथि है, लिहाजा उनकी याद आना स्वाभाविक है, मगर जब-जब देश बड़ी त्रासदी का सामना करता है, तो नेहरू याद आ ही जाते हैं।
— इस आलेख के लेखक दैनिक अमर उजाला दिल्ली संस्करण में स्थानीय संपादक हैं।