क्योंकि…हम भारत के लोगों की ताकत है “संविधान”
- सुदीप ठाकुर।
तकरीबन डेढ़ महीने पहले 12 दिसंबर, 2019 को अस्तित्व में आए नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के विरोध में देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे आंदोलन की सबसे अनूठी बात यह है कि इसे संविधान से सीधे जोड़ा गया है। यों स्कूल में नागरिक शास्त्र या नागरिकता जैसे विषयों के साथ ही संविधान की पढ़ाई शुरू हो जाती है, लेकिन उसका इतने व्यावहारिक रूप में इस्तेमाल देश संभवतः पहली बार देख रहा है। दिल्ली के शाहीन बाग से लेकर मुंबई के गेटवे ऑफ इंडिया और देश के विभिन्न हिस्सों में संविधान की प्रस्तावना का जिस तरह से पाठ किया जा रहा है, उसने देश के संविधान को विमर्श में ला दिया है।
आखिर आज संविधान और उसकी प्रस्तावना को पढ़ने की जरूरत क्यों आ गई है?
इसका जवाब तलाशने के लिए सत्तर साल पीछे लौटना होगा, जब संविधान सभा में संविधान निर्माताओं के बीच लंबा विमर्श हुआ।
यदि आप 12 खंडों में समाहित संविधान सभा की बहसों को देखेंगे, तो पता चलेगा कि संविधान निर्माता कितने दूरदर्शी और उदार थे कि उन्होंने व्यापक सहमति को तरजीह दी। उन बहसों को देखने से ही संविधान में अंतर्निहित आम नागरिकों की ताकत का पता चलता है।
हालांकि संविधान की मौजूदा प्रस्तावना को लेकर भाजपा और उसके कुछ सहयोगी दलों को एतराज है और उनका कहना है कि यह मूल प्रस्तावना नहीं है। दरअसल 1976 में इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान में 42वें संविधान कर प्रस्तावना में बदलाव किए थे। पहला बदलाव था, ‘संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य’ की जगह ‘संप्रभु समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य’, किया गया। दूसरा बदलाव था, ‘राष्ट्र की एकता’ की जगह ‘राष्ट्र की एकता और अखंडता’, किया गया।
लेकिन संविधान सभा की बहसों को देखें, तो पता चलेगा कि किस तरह से संविधान निर्माताओं ने एक-एक अनुच्छेद और प्रस्तावना को लेकर कितनी गंभीर बहस की और उसे व्यापकता प्रदान की। यही नहीं, ‘समाजवाद’ और ‘पंथ निरपेक्ष’ शब्द को लेकर जो लोग आपत्तियां कर रहे हैं, उन्हें इन बहसों को पढ़ना चाहिए। संविधान निर्माताओं ने साफ शब्दों में कहा है कि ये संविधान में अंतर्निहित हैं, फिर उनका उल्लेख किया जाए या नहीं कोई फर्क नहीं पड़ता।
संविधान सभा की पहली बैठक नौ दिसंबर, 1946 को हुई थी और आखिरी बैठक सत्तर साल पहले 24 जनवरी, 1950 को हुई। इन 165 दिनों के दौरान संविधान के मसौदे, प्रत्येक अनुच्छेद और प्रस्तावना को लेकर जिस तरह का विमर्श हुआ, वह देश के आम नागरिकों की आकांक्षाओं और उसके सपनों को ही प्रतिबिंबित करता है। इससे सही मायने में हमारी आजादी की कीमत का एहसास होता है। उनका जोर विवाद के बजाए सहमति पर था। वह कोई भी बात थोपना नहीं चाहते थे।
13 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा की पांचवीं बैठक में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संविधान का प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। उस समय संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में डॉ राजेंद्र प्रसाद उपस्थित थे। नेहरू ने कहा, ‘…यह प्रस्ताव नहीं संकल्प है, जिसे काफी बहस के बाद तैयार किया गया है और कोशिश की गई है कि विवादों से दूर रहा जाए। इस महान देश में निश्चित रूप से ढेर सारे विवाद होंगे; लेकिन हमने कोशिश की है कि जितना संभव हो विवादों से दूर रहा जाए।…’
अपने लंबे भाषण में नेहरू ने आठ बिंदुओं वाला प्रस्ताव पेश किया। इसके पहले बिंदु में कहा गया, ‘यह संविधान सभा दृढ़तापूर्वक और पूरी गंभीरता के साथ भारत को एक स्वतंत्र संप्रभु गणराज्य बनाने और उसके शासन के लिए संविधान के निर्माण के एलान का संकल्प प्रस्तुत करती है। ‘
नेहरू ने अपने लंबे भाषण में आगे जो कुछ कहा उस पर आज जैसे विभाजित समय में खासतौर से गौर करने की जरूरत है। उन्होंने कहा, ‘कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है कि प्रस्ताव में हमने यह नहीं कहा कि इसे एक समाजवादी राज्य होना चाहिए। मैं, समाजवाद के पक्ष में हूं और उम्मीद करता हूं कि भारत भी समाजवाद के पक्ष में खड़ा होगा और भारत एक समाजवादी राज्य के संविधान की ओर आगे बढ़ेगा और मैं यह मानता हूं कि पूरी दुनिया को उस रास्ते पर जाना होगा। समाजवाद का कौन-सा रूप यह आपके लिए विचारणीय हो सकता है। लेकिन मुख्य बात यह है कि इस तरह के प्रस्ताव में यदि मैं अपनी इच्छा थोप दूं कि मैं एक समाजवादी राज्य चाहता हूं, तब तो हम ऐसी चीज शामिल कर रहे होंगे जिस पर कुछ की सहमति है और कुछ की सहमति नहीं है और हम चाहते हैं कि ऐसे विषयों के आधार पर प्रस्ताव में विवाद न हो।…’
मगर नेहरू के प्रस्ताव से पूरी तरह से सहमत नहीं होने के बावजूद संविधान की अंतर्निहित भावना को लेकर संविधान का मसौदा तैयार करने वाले डॉ. भीमराव आंबेडकर कहीं अधिक स्पष्ट थे। संविधान सभा ने 15 नवंबर, 1948 को संविधान का प्रस्तावना को अंतिम रूप दिया था। इससे पहले इस पर तीखी बहस चली थी।
आज लोग हैरानी जता सकते हैं कि संविधान सभा की बैठकों में इस बात पर खासी बहस हुई थी कि क्या इसमें ‘ईश्वर’ और ‘राष्ट्रपिता’ जैसे शब्द जोड़े जाएं। इसके अलावा यूनियन यानी संघ और फेडरेशन यानी महासंघ जैसे शब्दों को लेकर भी सदस्यों में तकरार हुई थी। एक सदस्य ने तो सोवियत संघ की तर्ज पर यूनियन ऑफ इंडिया सोशलिस्टिक रिपब्लिक जैसा नाम भी सुझाया था।
संविधान सभा के सदस्यों में हर तरह की विचारधारा के लोग थे। इनमें बॉम्बे से चुनकर आए एक के टी शाह भी थे। गुजरात से उनका ताल्लुक था और उन्होंने गुजराती में नाटक भी लिखे थे। शाह चाहते थे कि संविधान के अनुच्छेद एक में स्पष्ट किया जाए कि भारत एक पंथनिरपेक्ष, संघीय, राज्यों का समाजवादी संघ होगा। उनका जोर इस बात पर था कि पंथनिरपेक्ष और समाजवाद शब्द को संविधान का हिस्सा होना चाहिए।
शाह के सुझाए संशोधनों को आंबेडकर ने ठुकरा दिया। आंबेडकर ने शाह को सलाह दी कि वह सिर्फ अनुच्छेद 31 ही पढ़ लें, तो उनकी शंका का निवारण हो जाएगा। इसमें सभी नागरिकों को बिना स्त्री और पुरुष में भेदभाव किए जीवनयापन का समुचित अधिकार का प्रावधान किया गया था। इसके अलावा इसमें सामुदायिक संसाधनों के लोकहित में इस्तेमाल और समान काम के लिए स्त्री और पुरुष को समान वेतन की बात की गई थी।
आंबेडकर ने कहा, ‘मैं प्रोफेसर शाह से कहना चाहता हूं कि मैंने जिन नीति निर्देशक तत्वों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है, यदि वे अपनी दिशा और विषयवस्तु में समाजवादी नहीं हैं, तो मैं यह समझने में नाकाम हूं कि इससे अधिक समाजवाद और क्या हो सकता है। ‘
आंबेडकर के जवाब के बाद संविधान सभा ने संविधान की प्रस्तावना पर मुहर लगा दी।
ऐसे समय जब चारों और अविश्वास का माहौल बढ़ता जा रहा है और असहमति को शत्रुता की तरह देख रहा है, संविधान ही हमें कोई राह दिखा सकता है।
(ध्यान रहे, जनता पार्टी की सरकार के समय 1978 में संविधान संशोधन के चवालीसवें संशोधन के जरिये अनुच्छेद 31 में निहित संपत्ति के अधिकार को निरस्त कर दिया गया। )
– लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं।