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बस्तर की नई राजनीतिक धुरी गढ़ने की तैयारी में हैं भूपेश बघेल…

सुरेश महापात्र।

बस्तर में 1980 के दौर से राजनीतिक धुरी जो 2013 तक पूरी तरह से खत्म हो गई उसे नए सिरे से गढ़ने की तैयारी भूपेश बघेल कर रहे हैं। यह सुनने में भले ही अटपटा सा लगे पर यह सबसे बड़ी सच्चाई है कि बस्तर की सभी सीट हार चुकी भारतीय जनता पार्टी और सत्ता रूढ़ कांग्रेस के पास कोई एक ऐसा चेहरा नहीं है जो सभी की पसंद भले ना हो पर एक धुरी बनकर खड़ा हो सके। जिसके इर्द—गिर्द बस्तर की राजनीति घुमाई जा सके।

राज्य निर्माण के पहले से ही बस्तर में कांग्रेस के कद्दावर नेता अरविंद नेताम और मानकूराम सोढ़ी का दौर खत्म हो चुका था। उनकी जगह पर महेंद्र कर्मा ने कांकेर से लेकर कोंटा—भोपालपट्नम तक अपना एक गुट बनाकर राजनीतिक दबादबा को कायम रखा। वही स्थिति भाजपा में सांसद बलिराम कश्यप की रही। जब तक वे जीवित थे किसी मुख्यमंत्री की स्थिति नहीं थी कि उन्हें इग्नोर कर सके।

बलिदादा के गुजरने के बाद बस्तर में भाजपा के लिए चेहरे तलाशे गए और तराशने की कोशिश की गई पर कोई भी ऐसा नहीं बन सका जिसके बूते पूरे बस्तर में राजनीति को संचालित किया जा सके। पूर्व मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह ने बस्तर में भाजपा के लिए शक्ति का एक सामानंतर केंद्र राजमहल को बनाने की भरपूर कोशिश की जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिल सकी। यहां तक कि राजमहल को बस्तर की राजनीति का केंद्र बनाने के लिए पीएम नरेंद्र मोदी से लेकर केंद्रीय नेताओं ने कोशिश की पर वे भी विफल ही रहे।

ये सब कुछ बलिदादा के गुजर जाने के बाद हुआ। आखिर डा. रमन को बस्तर मे राजनीति की धुरी बनाने के लिए मौजूदा चेहरों में से कोई अलग चेहरा तलाशने की नौबत ही क्यों आई? यह आम सवाल हो सकता है पर इसका जवाब साफ है कि वे किसी ऐसे चेहरे पर दांव लगाना नहीं चाहते थे जो आगे चलकर सीएम की कुर्सी के लिए ही बड़ा दावेदार बन जाए। यही वजह रहा कि वे बस्तर में आदिवासी नेताओं को दोनों हाथों से तौलते रहे। किसी का भी वजन कभी इतना बढ़ने नहीं दिया कि वह चुनौती बन सके। जो वजन बढ़ाने की कोशिश में लगा उसे ही किनारे लगा दिया।

इधर विपक्ष में रही कांग्रेस के पास 2013 तक सबसे बड़ चेहरा महेंद्र कर्मा ही रहे। वे राज्य निर्माण के दौरान सीएम पद की दावेदारी में भी मजबूती के साथ डटे रहे। सो बस्तर में उनके रहते किसी दूसरे आदिवासी नेता को राजनीतिक धुरी बनकर रह पाना कठिन ही था। झीरम हादसे के बाद बस्तर में कांग्रेस की राजनी​ति का सबसे बड़ा नुकसान कद्दावर आदिवासी नेता का चेहरा खत्म हो जाना रहा।

बस्तर की राजनीति में यह साफ है कि फिलहाल जितने भी चेहरे हैं जिनमें सांसद दीपक बैज से लेकर कैबिनेट का दर्जा पाए बस्तर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष लखेश्वर बघेल तक और कैबिनेट मंत्री कवासी लखमा से लेकर विधायक देवती कर्मा तक कोई ऐसा नहीं है जो फिलहाल बस्तर की राजनीतिक धुरी के लिए सर्वमान्य हो सके। या इतना दबदबा हो जिसकी खिलाफत कोई सीधे तौर पर ना कर सके।

2018 के चुनाव के बाद बस्तर में दंतेवाड़ा को छोड़ सभी सीटों पर सीधी जीत हासिल हुई थी। ​यदि इस चुनाव में दंतेवाड़ा से देवती कर्मा सीट निकाल ले जातीं तो संभवत: कवासी लखमा को मंत्री पद शायद ही मिल पाता। इसमें पहला हक निश्चित तौर पर देवती कर्मा का ही होता। पर ऐसा नहीं हुआ।

उपचुनाव में भले ही देवती कर्मा विजयीं हुईं पर इसमें सबसे बड़ी कमी यह रही कि इसके लिए सीएम भूपेश बघेल और पीसीसी चेयरमैन मोहन मरकाम समेत सभी को पूरी ताकत झोंकनी पड़ी। राजनीति में महेंद्र कर्मा जब तक रहे कभी अपने इलाके में किसी दूसरे नेता को हस्तक्षेप का मौका नहीं दिया। वे अपने दम पर ही सीटें निकालते थे और दूसरी सीटों के लिए अपनी ताकत लगाते थे। पर उनके जाने के बाद परिस्थितियां उलट हो गईं।

बस्तर की राजनीति में यदि सर्वमान्य धुरी की बात होगी तो निश्चित तौर पर सीएम भूपेश चाहेंगे कि पीसीसी चेयर पर्सन मोहन मरकाम और सांसद दीपक बैज से इतर कोई दूसरी धुरी तैयार की जाए। जो कैबिनेट मंत्री होने के बाद भी कवासी लखमा नहीं हो सकते। बस्तर की राजनीति में मोहन मरकाम को अध्यक्ष रहने तक ही हस्तक्षेप का अधिकार होगा।

वहीं सांसद दीपक बैज फिलहाल राजनीति में इतने उम्रदराज नहीं है कि कद्दावर सारे लोग उनके साथ खड़े हो जाएं। लखेश्वर बघेल को राजनीतिक धुरी के तौर पर मजबूत करना ना दीपक बैज के लिए सही होगा और ना ही मोहन मरकाम के लिए और तो और सीएम भूपेश बघेल के लिए भी… क्योंकि यदि ऐसा होता है तो लखेश्वर बघेल का राजनीतिक अनुभव और बस्तर में उनकी छवि से स्पष्टतौर पर एक मजबूत गुट का निर्माण हो जाएगा।

ऐसे में बस्तर की ​बिसात को अपने हिसाब से तौलने की कोशिश सीएम भूपेश बघेल ने की है। कर्मा परिवार में फिलहाल ऐसा कोई योग्य उन्हें शायद नज़र नहीं आ रहा। जो हैं भी तो अब राजनीतिक तौर पर सीएम के खिलाफ खड़े होने की स्थिति में ही नहीं हैं। य​ही वजह है कि बस्तर में उन सारे नेताओं को पद बांट दिया गया है ताकि वे अपने—अपने क्षेत्र में ही राजनीति कर सकें।

मसलन बस्तर विधायक लखेश्वर बघेल को बस्तर विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष, भानुप्रतापपुर मनोज मंडावी विधानसभा उपाध्यक्ष, कोंटा विधायक कवासी लखमा को कैबिनेट मंत्री, बीजापुर विधायक विक्रम मंडावी को बविप्रा उपाध्यक्ष, जगदलपुर विधायक रेखचंद जैन को संसदीय सचिव, कोंडागांव विधायक मोहन मरकाम को पीसीसी चेयर पर्सन, नारायणपुर विधायक चंदन कश्यप को संसदीय सचिव, केशकाल विधायक संतराम नेताम को बविप्रा उपाध्यक्ष, कांकेर विधायक शिशुपाल सोरी को संसदीय सचिव, दंतेवाड़ा कोटा से देवती कर्मा पुत्र छविंद्र कर्मा को पादप बोर्ड उपाध्यक्ष, चित्रकोट विधायक राजमन बेंजाम, अंतागढ़ से अनूप नाग को छोड़कर सभी को कुछ ना कुछ पद दे दिया है।

ये सभी नेता अपने इलाके से बाहर जाकर शक्ति का प्रदर्शन करने की​ स्थिति में ही नहीं हैं। ऐसे में कांकेर के राजेश तिवारी संसदीय सलाहकार कैबिनेट दर्जा और जगदलपुर से मिथिलेश स्वर्णकार को क्रेडा चेयरमैन का पद और राज्य मंत्री का दर्जा दिया गया है। असल में भूपेश बघेल की सियासत में ये ही दो बड़े चेहरे हैं एक उत्तर बस्तर से राजेश तिवारी और मध्य व दक्षिण बस्तर से मिथिलेश स्वर्णकार। इन दोनों को पूरी बस्तरिया सियासत की धुरी बनाने की कोशिश साफ दिखाई दे रही है। वजह साफ है बस्तर में आदिवासी—गैर आदिवासी वाले मुद्दे में राजनीतिक संतुलन और सर्वग्राहृयता की स्थिति दोनों के साथ है।

मिथिलेश स्वर्णकार के पदग्रहण कार्यक्रम में सीएम भूपेश बघेल के साथ जिस तरह से आज नेताओं का जमावड़ा रहा यह स्पष्ट संकेत है कि उनके कद को बढ़ाया गया है। जगदलपुर विधायक रेखचंद जैन और मिथिलेश स्वर्णकार महेंद्र कर्मा के बेहद करीबी रहे हैं। ये दोनों अंत तक उनके साथ ही रहे। जबकि राजेश तिवारी की कांग्रेस में राजनीतिक शिक्षा उनके गुरू अरविंद नेता की पाठशाला में पूरी हुई। 1998 के बाद राह बदल गई।

यही वजह है कि अब बस्तर की राजनीति को साधने की सीधी जिम्मेदारी राजेश तिवारी और मिथिलेश स्वर्णकार के माध्यम से ही की जाएगी। कांग्रेस में राजेश तिवारी का इतिहास बस्तर में सभी जानते हैं इसीलिए केवल राजेश तिवारी के बल पर पूरे बस्तर में संतुलन बना पाना संभव नहीं है। वहीं मिथिलेश स्वर्णकार की छवि सबको लेकर चलने वाली रही है। विधा​यक टिकट के दौड़ में रहने के बाद भी जब रेखचंद जैन को टिकट दी गई तो वे पूरी निष्ठा के साथ कांग्रेस के लिए जुटे रहे।

जगदलपुर में विधायक भले ही रेखचंद जैन हैं पर मिथिलेश की बात रेखचंद काट दें ऐसा एक भी उदाहरण किसी ने नहीं देखा है। मिथिलेश की अपनी बनाई छवि ही है कि कैबिनेट मंत्री होने के बाद भी कवासी लखमा उनसे मिलने के लिए जाते रहे हैं। यानी एक कद्दावर नेता जिसे नेता अपना नेता मान सकें और जो पूरे बस्तर के लिए राजनीति की नई धुरी बन सके… उसकी तलाश में वर्तमान सीएम भूपेश के लिए विपक्ष की राजनीतिक दौर के करीबी मिथिलेश ही हैं। हालिया नियुक्तियों के बाद बस्तर की सियासत का तरीका अब बदलेगा यह पक्का जान लें..

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