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भोपाल की लाल-कोठी यानि राजभवन में रहने वालों के दिन फिर नहीं बहुरे…

मध्यप्रदेश के राजभवन के इतिहास पर विशेष : वर्ष 1880 से लेकर आज तक लाल-कोठी में जितने भी शासक-प्रशासक रहे ज्यादातर यहां से जाने के बाद गुमनामी में खो गए। और तो और बहुत कम ही ऐसे अधिकारी या नेता रहे जिन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया हो।

मार्च 1818 के बाद से अंग्रेजों और भोपाल नवाब के बीच संधि हो जाने के बाद यहां पर अंग्रेजी हुकूमत का एक पोलिटिकल एजेंट रहने लगा था। उसी पोलिटिकल एजेंट के रहने के लिए 1880 में लाल-कोठी नाम की यह इमारत तामीर की गई। लाल रंग के कवेलू (खपरे) इस भवन पर लगे होने के कारण इसका नाम लाल-कोठी पड़ा।

इस इमारत का निर्माण और डिजाइन एक फ्रेंच आर्किटेक्ट ऑस्टेट कुक द्वारा किया गया। ये वास्तुविद महोदय भोपाल राज्य में बांध और नहरें बनाने आये थे लेकिन उन्हें यह काम पहले करना पड़ा।

(साभार : दीपक तिवारी, पत्रकार एवं पूर्व कुलपति)

अब तक इस इमारत में 14 अंग्रेज़ पोलिटिकल एजेंट, 1956 में मध्यप्रदेश गठन कर बाद 23 राज्यपाल और 1947 से 1956 के बीच चार चीफ कमिश्नर रहे।

मज़ेदार बात यह है कि इन 23 राज्यपालों में से केवल छह ने अपना कार्यकाल इस भवन में पूरा किया।

वैसे तो यह भवन बहुत महत्व का है क्योंकि अंग्रेजों का पोलिटिकल एजेंट इस इमारत में बैठकर भोपाल राज्य, राजगढ़, नरसिंहगढ़, कुरवाई, मक्सूदनगढ़, खिलचीपुर, बासौदा, मोहम्मदगढ़, पठारी और ग्वालियर, इंदौर, टोंक एवं देवास रियासत के कुछ खास इलाकों को नियंत्रित करता था। लेकिन इसमें रहने वाले बहुत से लोग विवादों के कारण चर्चा में रहे और बाद में न जाने कहाँ खो गए।

इस भवन का आगाज़ ही विवादों से हुआ। 1880 शाहजहाँ बेगम ने जब इसे बनवाया तो यहां रहने के लिए आये ब्रिटिश रेजिडेंट सर लेपेल ग्रिफ्फिन ने बेगम का ही तख्ता-पलट का षडयंत्र रच दिया। ग्रिफ्फिन और बेगम के बीच यह विवाद लगभग चार साल चला।

मध्यप्रदेश बनने के बाद पहले राज्यपाल डॉ भोगराजू पट्टाभि सीतारमैया ने शपथ अमावस्या के दिन ली। उसी दिन शाम को पहले मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल ने भी शपथ ली। इसे विधि का विधान कहिए या कुछ और की शपथ लेने के मात्र एक महीने बाद ही मुख्यमंत्री शुक्ल का निधन हो गया और सीतारमैया भी राज्यपाल मात्र सात महीने ही रहे।

नियुक्त हुए अब तक के राज्यपालों में केवल निरंजन नाथ वांचू ही मध्यप्रदेश के थे बाकी सभी बाहर से ही आए।

दूसरे राज्यपाल हरि विनायक पटास्कर उसके बाद छठे राज्यपाल सत्यनारायण सिन्हा, नवें राज्यपाल भगवत दयाल शर्मा, बीसवें राज्यपाल डॉ भाई महावीर उसके बाद बलराम जाखड़ राम और राम नरेश यादव ही पूरे पांच बरस तक यहां रह पाए।

उत्तर प्रदेश के चार नेता मध्यप्रदेश में राज्यपाल रहे कुंवर महमूद अली खान, राम प्रकाश गुप्ता, राम नरेश यादव और श्री लालजी टंडन। दुर्भाग्य से राज्यपाल रहते हुए जिन दो नेताओं का निधन हुआ वे दोनों ही उत्तर प्रदेश के थे।

प्रदेश में जितने भी महानुभावों को राज्यपाल बनने का अवसर मिला उनमें से ज्यादातर राजनीति से आए थे। केवल सरला ग्रेवाल, जोकि आईएएस अधिकारी थे और राजीव गांधी के प्रधानमंत्री कार्यालय में सचिव थी, और निरंजन नाथ वांचू ही नौकरशाह थे।

सत्यनारायण सिन्हा आपातकाल के दौर में राज्यपाल थे। उनके कार्यकाल में बहुत से विवाद हुए। जिनमें से प्रमुख ₹100 के नोटों के 4200 बंडल रातों-रात बैंक में बदलने को लेकर विवाद था। तब 100 रुपये के नोटों को लेकर नोटबन्दी की अफवाह उड़ी थी। इसी तरह एक बार जब उन्होंने राजभवन में लाइफ़बाय साबुन की उपलब्धता नहीं हुई तब उन्होंने साबुन के डीलर के यहां छापा पड़वा कर उसे जेल भिजवा दिया।

अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान भगवत दयाल शर्मा, जो कि हरियाणा के पहले मुख्यमंत्री रहे थे, वह राज्यपाल थे। राज्यपाल शर्मा और मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के बीच तब बहुत विवाद चला करते थे। इन विवादों का नतीजा एक बार विधानसभा के संचालन पर भी पड़ा जब शर्मा ने सरकार के लिखे भाषण को पढ़ने से मना कर दिया।

1992 राष्ट्रपति शासन के समय मेरठ के वकील कुंवर महमूद अली का राज्यपाल थे। कुंवर साहब अपने आप को उज्जैन के राजा विक्रमादित्य का वंशज बताते थे। वे हिंदी पढ़ना नहीं जानते थे लिहाजा उनके भाषण उर्दू एवं अंग्रेजी में ही लिखे जाते थे।

उनके बाद मोहम्मद शफी कुरैशी जब मध्यप्रदेश के राज्यपाल बने तब उन्हें कुछ दिनों के लिए उत्तर प्रदेश का प्रभार सौंपा गया। उस समय उत्तरप्रदेश के एक शहर में बड़ी सांप्रदायिक घटना होते होते बच गई जब राज्यपाल शफी कुरैशी ने अपनी हिकमतअमली से उसका समाधान कर दिया।

हुआ यह था कि एक शहर में मुसलमान जिस स्थान से अपना ताजिया निकालना चाहते थे वहां पर एक पवित्र बरगद का पेड़ था। हिंदू उस बरगद के पेड़ की टहनियों को ना काटने देने पर अड़े थे और मुसलमान इस बात पर अड़े थे कि वे अपने ताजिए की ऊंचाई छोटी नहीं करेंगे।

जब विवाद बहुत ज्यादा बढ़ा और राज्यपाल के पास पहुंचा तब शफी कुरैशी ने साधारण सी युक्ति बताकर विवाद समाप्त करा दिया। उन्होंने पीडब्ल्यूडी के अधिकारियों को बुलाकर कहा की बरगद के नीचे से निकलने वाली सड़क की गहराई इतनी बढ़ा दी जाए जिससे कि ना तो ताजिए की ऊंचाई कम करना पड़े और ना ही बरगद काटना पड़े। बस क्या था पीडब्ल्यूडी ने कुछ घंटे के अंदर सौ मीटर की सड़क को गहरा कर दिया।

कुरैशी के बाद भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्यों में से एक डॉ भाई महावीर पूरे पांच साल राज्यपाल रहे। लेकिन उनका हर हफ्ते तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के साथ कुछ ना कुछ विवाद होता रहता था। इसी तरह जब लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष और देश के पूर्व कृषि मंत्री डॉ बलराम जाखड़ राज्यपाल बने तब राजभवन ने अपनी गरिमा को काफी हद तक खोया। उस समय राजभवन जिस तरह अनैतिक गतिविधियों का केंद्र बना उसको लेकर बहुत आलोचना हुई।

इसी तरह उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री राम नरेश यादव का कार्यकाल पूरे पांच साल तो चला लेकिन वह उन राज्यपालों में से एक बने जिन पर कोर्ट ने बाकायदा व्यापम के मामले में जांच करने के मुकदमे को सुना। मामला यहां तक बिगड़ा कि उनके निजी सचिव को जेल तक हुई।

अब से दो साल पहले 2018 में वर्तमान प्रभारी राज्यपाल आनंदीबेन पटेल जब मध्यप्रदेश आईं तो उन्होंने बहुत धमाकेदार प्रवेश किया। आने के लिए उन्होंने सरकारी जहाज के बजाए एक बस से आना पसंद किया। भोपाल पहुँचने के पहले उन्होंने भगवान महाकाल की पूजा की और दरवाजे पर बैठे नंदी के कान में कुछ कहा।

उन्होंने नंदी से क्या कहा यह तो आज तक पता नहीं चला, लेकिन उनके रहते हुए मध्यप्रदेश में 15 साल के भाजपा के शासन का अंत हो गया। आनंदीबेन पटेल ने राज्यपाल के रूप में अतिसक्रियता दिखाते हुए जैसे ही प्रदेश के जिलों का दौरा करना आरंभ किया और कमी दिखने पर सरकार की खिंचाई की उससे लगा की उनका दौर भी बाकी राज्यपालों की तरह ही चर्चाओं वाला होगा। वैसा हुआ भी।

कुल मिलाकर फ्रेंच वास्तुविद द्वारा तैयार की गई लाल कोठी, इसमें रहने वाले बहुत कम लोगों को ही शुभ साबित हुई है। इस लाल कोठी से जाने के बाद केवल आनंदीबेन पटेल, अज़ीज़ कुरैशी, सीएम पुनाचा और एनएन वांचू ही महत्वपूर्ण पदों पर रहे अन्यथा फिर किसी के दिन नहीं बहुरे।

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