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तो यह तय करना कठिन होगा कि उन्होंने न्याय किया या इन्होंने… इसलिए कृपया फर्जी मुठभेड़ों को न्याय मत मानिए…

सुरेश महापात्र।

छत्तीसगढ़ में पुलिस और नक्सलियों के बीच मुठभेड़ की सैकड़ों कहानियों का सच किसी को अब तक पता नहीं। सैकड़ों माओवादियों की मौत मुठभेड़ के नाम दर्ज हैं। वहीं कई ऐसे मामले भी हैं जिनमें ना तो मुठभेड़ दर्ज किए गए और ना ही किसी पर आरोप तय किया जा सका। मौतें सहज तौर पर आदिवासियों की ही हुई। मारने वाले वर्दीदारी ही थे। वे पुलिस की वर्दी में थे या माओवादियों की वर्दी में इस बहस का कोई मायने इसलिए नहीं है क्योंकि बस्तर में कानून का अपना ही राज है।

बहस का कोई विषय ही नहीं है कि बस्तर में जब सर्चिंग पार्टी पर घात लगाकर माओवादी हमला करते हैं बारुदी विस्फोट में बेगुनाह जवानों की मौतें दर्ज हो जाती हैं। इन मौतों के बाद भी देश के बड़े हिस्से में माओवादियों से बदला की आवाजें बिल्कुल वैसी ही उठती हैं जैसे विकास दूबे को पकड़ने गए पुलिस दल पर हमला और बर्बर मौतों के बाद हुईं।

विकास दूबे की मौत के बाद पूरे देश में न्याय की जीत का जश्न बिल्कुल वैसा ही मनाया जा रहा है जैसा हैदराबाद इनकाउंटर के बाद मनाया गया था। यह जश्न बिल्कुल वैसा ही था जैसा निर्भया मामले में आरोपियों को फांसी के बाद मनाया गया। तब भी कहा गया न्याय की जीत हुई। पर गंभीर सवाल यह है कि हम न्याय की अपनी ही परिभाषा को गढ़ते हैं और बाद में उसी पर सवाल भी खड़ा करते हैं।

बस्तर में अपने तीन दशक की पत्रकारिता के दौरान जंगल के भीतर जो हो रहा है उसे करीब से देखने का मौका भी मिला। कई मामले मीडिया ने उठाए। आदिवासियों के लिए लड़ रहे संगठनों की आवाज लगातार उठती रही है। इन आवाजों के बीच बस्तर में सुरक्षा दे रहे सशस्त्र बलों और पुलिस के पक्ष से भी कई संगठन कथित मानवाधिकार संगठनों और बेगुनाह आदिवासियों के पक्ष में खड़े होने वाली मीडिया को भी निशाने पर लेते रहे हैं। यानी दोनों पक्ष न्याय की अपनी परिभाषा के साथ सक्रिय है।

सलवा जुड़ूम का उल्लेख किए बगैर बस्तर के मर्म को स्पर्श नहीं किया जा सकता। सलवा जुड़ूम को लेकर पक्ष और विपक्ष के बहस के अपने कारण हो सकते हैं पर सबसे बड़ा मुद्दा माओवादियों और सशस्त्र बलों के बीच में पिसते आदिवासियों को लेकर ही है।

माओवादियों ने हमले किए और यहां सुरक्षा देने पहुंचे सशस्त्र बलों को निशाना बनाया। मौतें हुईं और इसके एवज में कई बार ऐसे भी मौके आए जब अंदरूनी गांवों में कत्लेआम हुआ और एफआईआर तक दर्ज नहीं की गई। ना तो मुठभेड़ दर्ज की गई और ना ही माओवादियों द्वारा हत्या बताया गया। यानी मौतें भी गुमशुदगी के साथ इतिहास में चुपचाप दफन हो गई।

मार्च 2007 में छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले के संतोषपुर गांव हकीकत सामने आई। दैनिक भास्कर में यह खबर मुठभेड़ या हत्याएं शीर्षक के साथ प्रथम पृष्ठ पर नेशनल एडिशन पर छपी। प्रकाशन के बाद पहली बार मामले का जिक्र सार्वजनिक हुआ। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मामले को संज्ञान में लिया और तब विपक्ष में रही कांग्रेस के अखिल भारतीय संगठन से एक प्रतिनिधि मंडल मौके पर जांच के लिए भी पहुंचा था।

इस मामले के बाहर आने के बाद बस इतना ही न्याय हो सका कि करीब डेढ़ माह बाद दफन किए गए मृत आदिवासियों की लाशों को कब्र से निकाला गया और विधिक तौर पर पोस्टमार्टम की प्रक्रिया पूरी की गई। पुलिस ने अज्ञात आरोपियों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज करने के लिए बाध्य हुई। इसके आगे क्या हुआ शायद किसी को कुछ नहीं पता? इस मामले में मृतकों के परिजनों को शासन ने क्या राहत दी इसका भी कोई पता नहीं।

यह इस तरह का इकलौता मामला नहीं है बल्कि ऐसे बहुत से मामले हैं। सारे मामले वर्दीधारियों पर ही हैं। ये वर्दीवाले कभी माओवादी हैं तो कभी सशस्त्र बल। बस्तर में शहीद होने वाले जवानों के साथ भी न्याय की अपेक्षा हम करते हैं। वे नौकरी कर रहे हैंं। सरकार जहां कह रही है वे वहां पहुंच रहे हैं। उनकी माओवादियों से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी तो है नहीं फिर भी माओवादी पूरी नृशंसता के साथ हमलों को अंजाम देते हैं। हम इस हमले के जवाब में प्रतिहमला के प्रति संगठित होते हैं। इसके बाद जो होता है वही बस्तर में दशकों से हो रहा है और हम लाशें गिन रहे हैं।

मेरा सवाल उन सभी लोगों से है जो विकास दूबे के इनकाउंटर को जायज बता रहे हैं। जिन्होंने हैदराबाद के बेरहम हत्यारों की मुठभेड़ को भी न्याय संगत माना है। ऐसा मानना बिल्कुल आसान है क्योंकि हम तब पीड़ित पक्ष की ओर से अपने नजरिये को प्रमुख मान रहे हैं। और यह स्वीकार कर रहे हैं कि जो किया गया यह अजमल आमिर कसाब को लंबे समय तक खाना खिलाकर न्याय के नाम पर इंतजार करने से बेहतर है। निर्भया के मामले में यह जानने के बाद भी कि अपराधियों ने जिस तरह से घटना को अंजाम दिया था उसके मुकाबले सजा में देरी हुई।

यदि हम इसे सहज तौर पर स्वीकार कर रहे हैं तो बस्तर में हिंसा के प्रति हिंसा को क्या नाम दें यह भी विचार करना चाहिए। संतोषपुर में क्या हुआ था इसकी हकीकत को मैने उनके परिजनों से सुना और समझा था। कब्र की तस्वीर को लेकर जब भैरमगढ़ पहुंचा तब संपादक दिवाकर जी को मोबाइल पर सूचना दी। एक संपादक के तौर पर उनके साहस को सलाम करता हूं। वे इस समाचार को सरकार के दबाव के बाद भी प्रकाशित करने को तैयार हुए। खुलेआम स्पष्ट किया कि ये मुठभेड़ या हत्याएं हैं इसका जवाब सरकार को देना चाहिए।

उसके बाद ही बेनाम मौतों को नाम मिला और न्याय? इसका पता तो किसी के पास नहीं है। यदि इसी बदले की आग में बस्तर में लोग माओवादियों के साथ खड़े होते हैं और हिंसा के प्रति हिंसा का भाव रखते हैं तो उन्हें भी उनकी धारणा के आधार पर न्याय का जश्न मनाने का अधिकार होना चाहिए? क्या हम यह स्वीकार कर सकते हैं। 

इसलिए पुलिस को कानून का रक्षक बनाया गया है ना कि न्यायधीश…। यदि हम हथियारबंद पुलिस के साजिश करने और हत्या करने के तरीके को न्याय मानने लग जाएं तो यह बेहद खतरनाक होगा। यह विचार मन में जरूर रखना चाहिए। क्योंकि यदि हम इसे ही न्याय मानेंगे तो हर वह व्यक्ति जो जुर्म के खिलाफ हथियार उठाने लगेगा उसे भी न्याय का हक मिल जाएगा।

यदि हम न्याय की इतनी सरल परिभाषा को सही मानने लग जाएं जिसमें न्यायालय की भूमिका खत्म हो जाए… तो अराजकता ही न्याय का पर्याय हो जाएगा। तब यह तय करना कठिन होगा कि उन्होंने न्याय किया या इन्होंने… इसलिए कृपया फर्जी मुठभेड़ों को न्याय मत मानिए…

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