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इंद्रावती के पानी की तासीर ही कुछ ऐसी है कि… जान पर खेलकर जान बचाते हैं बस्तर के मीडियाकर्मी…

यह पहला मामला नहीं… इससे पहले भी जानपर खेलकर जान बचाई है बस्तर के पत्रकारों ने…

त्वरित टिप्पणी /सुरेश महापात्र।

बस्तर में पत्रकारिता हमेशा तलवार की धार पर होती है। थोड़ी सी चूक हुई तो या मौत मिलती है या जेल…। पर यहां के पत्रकारों का जज्बा ही कुछ ऐसा है कि वे खबर से पहले जान को महत्व देते रहे हैं। बीजापुर में आरक्षक संतोष की सुरक्षित रिहाई कोई पहली घटना नहीं है। संतोष के मामले में बीजापुर के पत्रकार गणेश मिश्रा, पी रंजन दास और चेतन कॉपेवार ने जिस धैर्य का प्रदर्शन किया है वह अनुकरणी है। सभी मीडियाकर्मियों के लिए। वे चाहते तो सात दिनों तक सुर्खियां बटोर सकते थे… लाइव रिपोर्टिंग की…।

इससे पहले बहुत से ऐसे मामले हैं जिनमें पत्रकारों ने जान की बाजी लगाकर जान बचाने की कोशिश की है। कहते हैं इंद्रावती के पानी की तासीर ही कुछ ऐसी है कि… जान पर खेलकर जान बचाते हैं बस्तर के मीडियाकर्मी…

यहां के पत्रकारों में भी इसी पानी का जबरदस्त प्रभाव है। वे आदिवासियों के लिए खड़े हो जाते हैं जब पुलिस की ओर से बेगुनाहों की मौत की खबर आती है। इस लिस्ट में बहुत से नाम हैं जिनमें अनिल मिश्रा और कमल शुक्ला तो हैं ही साथ ही आदिवासी चेहरा लिंगाराम कोड़ोपी, मंगल कुंजाम और संतोष कुमार यादव भी इसी फेहरस्ति का हिस्सा हैं। हो सकता है कुछ नाम छूट रहे हों जिन पर पुलिस की हमेशा से निगाह रही और प्रताड़ित भी हुए।

बस्तर में पत्रकार तब माओवादियों के खिलाफ हो जाते हैं जब माओवादी किसी निहत्थे पत्रकार को मुखबिर बताकर मौत की सजा दे दें। वे उन बस्तियों का सफर करते हैं जहां लोग पुलिस और नक्सली के दो पाटों में पिस रहे हैंं। बस्तर ऐसी ही धरा है जहां सनसनी के जगह पर जान बड़ी हो जाती है पत्रकारों के लिए…।

बस्तर भूमि में पत्रकारिता करते हुए आज सरकार के मीडिया सलाहकार रूचिर गर्ग, इंडियन एक्सप्रेस के आशुतोष भारद्वाज, अब स्क्राल की एडिटर सुप्रिया शर्मा, द हिंदु के पवन दहट, बीबीसी के सलमान रावी, आलोक पुतुल, शुभ्रांशु चौधरी ऐसे ना जाने कितने बड़े नाम हैं जिन्होंने यहां की खबरों से अपनी विशेष पहचान बनाई है। ये सभी वे लोग हैं जिनको लेकर पुलिस हमेशा लेफ्टिस्ट का मौखिक अवार्ड देती रहती है।

इसके इतर पुलिस और नक्सलियों के बीच जान पर खेलकर मध्यस्थता करने वाले पत्रकारों की मौतें इस बात का गवाह हैं कि माओवादी और पुलिस दोनों पत्रकारों को अपना हथियार समझती रही हैं। वे जरूरत के मुताबिक अपने लिए इसका उपयोग भी करते हैं। पत्रकार साईं रेड्डी और नेमीचंद जैन की हत्या माओवादियों ने की।

दोनों के खिलाफ माओवादियों ने अपने चार्जेस की लिस्ट भी बता दी। बाद में पत्रकारों के आक्रोश पर माफी भी मांग लिया। पर वे तो मारे ही गए…। ऐसे ही मामलों में पुलिस का रवैया भी पत्रकारों के लिए यूज एंड थ्रो जैसा ही है। गैर उपयोगी साबित होने पर जेल के लिए रास्ता खोल देना पुलिस का सबसे आसान तरीका है।

कहने का आशय है कि बस्तर के रण में काम करने वाले पत्रकार भले ही खबर की सनसनी से ज्यादा जान का महत्व देते हों पर वे हमेशा अपने जीवन को ही दांव पर लगाते रहे हैं। बस्तर में ऐसे कई उदाहरण है जब मीडिया की ओर से जनता की वकालत को सरकार ने अपने खिलाफ ऐलान ए जंग मान लिया। पत्रकारों के खिलाफ एफआईआर तक दर्ज किए गए।

बस्तर में के वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र बाजपेई ने अपनी उम्र पर जीत हासिल कर कोंटा के बीहड़ से नक्सलियों की गिरफ्त में रहे थानेदार प्रकाश सोनी की जीवित रिहाई के साक्षात गवाह हैं। इस मुहीम में सुकमा के पत्रकार लीलाधर राठी भी उनके साथ थे।

इसके बाद आईएएस सुकमा कलेक्टर अलेक्स पॉल मेनन की रिहाई में बीबीसी के सलमान रावी की भूमिका को कैसे नजर अंदाज किया जा सकता है। सलमान की इस मामले में भूमिका ऐसी हो गई थी कि माओवादियों की ओर से संदेश उन तक सीधे पहुंचता था।

जिस अफसर को लेकर पूरे देश में हाहाकार मचा हो उसके संबंध में एक छोटी सी भी खबर कितनी बड़ी होगी यह साफ जाना जा सकता है। तब देश के कई पत्रकारों ने सुकमा में ही डेरा डाल रखा था। रमन सरकार की सांस चढ़ी हुई थी। सीएमओ से लेकर सुकमा तक हर कोई मेनन की सुरक्षित रिहाई का इंतजार कर रहा था…।

इससे पहले बस्तर से सटे उड़ीसा के मलकानगिरी जिले के कलेक्टर आर विनिल कृष्णा को बंधक बनाए जाने के बाद मीडिया की मध्यस्थता में ही रिहाई का रास्ता निकल सका था। यानी हर उस मामले में जहां बस्तर की मीडिया से लोगों ने उम्मीद लगाई वहां मीडिया खबर से पहले जिंदगी बचाने की मुहीम में स्वयं को झोंका है।

बीजापुर जिले में इससे पहले चार जवानों की सकुशल रिहाई में बस्तर के पत्रकार बापी राय की बड़ी भूमिका रही। नवंबर 2010 तारलागुड़ा थाने में पदस्थ सब इंस्पेक्टर समेत सात जवानों को माओवादियों ने उस समय बंधक बना लिया था। जब वे अवकाश के बाद बीजापुर से तारलागुड़ा लौट रहे थे। चिंतावागू नदी पार करने के बाद सभी को बंधक बना लिया था।

इसमें से तीन की हत्या की खबर पहले आई। इसके बाद बस्तर में बापी राय और किरंदुल के पत्रकार अब्दुल हमीद सिद्दिकी सक्रिय हुए। माओवादी चार जवानों को लेकर 11 दिन घूमते रहे। अपहरण की इस घटना के बाद ये दोनों पत्रकार सात दिनों तक जंगल की खाक छानते रहे। इनका अपहरण माओवादियों की पश्चिम बस्तर डिविजन कमेटी ने किया था। बापी राय के मुताबिक माओवादियों से 10 वें दिन संपर्क हो पाया।

इसके बाद 11 वें दिन माओवादियों ने चारों जवानों को जिंदा मीडिया के हवाले कर दिया। तब किसी प्रकार की जन अदालत नहीं लगाई थी। इसी सरकार के कार्यकाल में करीब सात माह पहले ककाड़ी—नहाड़ी इलाके में माओवादियों ने तीन इंजीनियरों को बंधक बना लिया था। इसमें भी बापी राय ने उनकी सुरक्षित रिहाई का मार्ग प्रशस्त किया था।

अब छत्तीसगढ़ में सरकार पत्रकारों की सुरक्षा के लिए एक कानून ला रही है। इसके लिए सरगुजा से लेकर बस्तर के पत्रकारों के साथ रायशुमारी की गई है। पर इसका परिणाम कब तब सामने आएगा यह कहना कठिन है। सरकार भले ही एक रास्ता निकालने की कोशिश कर रही है, उस पर बस्तर के बीहड़ में काम कर रहे फोर्स के मनोबल के साथ संतुलन स्थापित करने का भी दबाव है।

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