Editorial

मदर्स डे विशेष : माँ, मेरी माँ…

दिवाकर मुक्तिबोध…

दिवाकर मुक्तिबोध

( माँ को गुज़रे दस वर्ष हो गए। पिताजी बहुत पहिले चले गए, 1964 में। उनकी कुछ यादें लिखीं । छपी भी। उनके साथ माँ का भी स्मरण करता रहा लेकिन लिखा कुछ नहीं जबकि विकट परिस्थितियों के बीच उन्होंने ही हमें छोटे से बड़ा किया, हमारी बेहतर परवरिश की। उनकी छत्रछाया भी ईश्वर की कृपा से दीर्घ अवधि तक हम पर बनी रहीं।

उन्होंने करीब 87 साल की उम्र पाई जबकि पिताजी 47 की आयु में गुज़र गए। मां की यादें मन में ही क़ैद रह जातीं बशर्ते ख्यात आलोचक सूरज पालीवाल ने प्रेरित न किया होता। रायपुर में पिताजी की पुण्यतिथि, 11 सितंबर 2019 के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम पर बोलते हुए उन्होंने माँ को याद किया व उन पर लिखे जाने की ज़रूरत बताई। उन्होंने कहा और मन में यह बात घर कर गई कि बिखरी -बिखरी सी ही सही पर माँ के बारे में लिखकर मन को शांत किया जाना चाहिए। सो शुरू हुआ यादों का एक और सफ़र। इस सफ़र में पिताजी भी हैं और उनसे संबंधित कुछ ऐसे प्रसंग भी जिनका ज़िक्र पहिले हो चुका है।)

शांता मुक्तिबोध । यह नाम था माँ का । यह नाम किसका दिया हुआ था , मुझे नहीं मालूम। विवाह के बाद नाम बदलने की परम्परा है। सो, बदल दिया गया। आम तौर पर विवाह के तुरन्त बाद , घर में नई बहू के क़दम पड़ते ही उसका ससुराली नाम गढने का रिवाज है और चूँकि पति को ही अपनी पसंद का नया नाम चुनने की आज़ादी रहती हैं इसलिए यह मानकर चलना चाहिए कि है शांता पिताजी का ही दिया हुआ नाम है। बहरहाल इस बात को अलग रखें तो यह ज़रूर जानता हूँ कि उनका मूल नाम इंदिरा था। इंदिरा मिरीकर, महू , मध्यप्रदेश । पिता- माधवराव मिरीकर। पेशा – नौकरी , पद -शिलेदार। विवाह के बाद उनका नया नाम हो गया शांता गजानन मुक्तिबोध । माँ का जन्म कब हुआ था , खुद उन्हें नहीं मालूम। उम्र पूछने पर इतना ही कहती थी , सन 1939 में शादी हुई तब वे 15-16 साल की थी।और पिताजी 21-22 के। यानी दोनों का बीच आयु का अंतर करीब 6 वर्ष। अब पिताजी की जन्म तिथि या विवाह तिथि के हिसाब से उनकी आयु का अंदाज लगाया जाता था। वर्ष तो निकल आता था पर तिथि व महीना नहीं। पिताजी यानी गजानन माधव मुक्तिबोध जी की पैदाइश थी-13 नवंबर 1917। इनमें छ: साल जोड़ दें तो माँ का जन्म वर्ष हुआ 1923। यह भी अनुमानित है । तारीख़ व महीना तो ख़ैर अज्ञात है ही। ऐसा कोई दस्तावेज़ भी उपलब्ध नहीं है कि हम उनकी जन्मतिथि, महीना व वर्ष ठीक-ठीक जान सकें।अब आश्चर्य होता है और अफ़सोस भी कि माँ के जीवित रहते हमने भी ज़ोर देकर क्यों नहीं पूछा -माँ , याद करने की कोशिश करो। कोई संकेत दो। स्कूल का कोई सर्टिफ़िकेट हो तो बताओ। दरअसल हम सामान्यत: माँ के बारे में, उसके अतीत के बारे में ज्यादा कुछ जानने की कोशिश नहीं करते। हमारे लिए इतना ही काफी होता है कि वे हमारी माँ है। इसके आगे कुछ नहीं। उनके परिवार , पीढ़ियाँ , उनकी परवरिश, उनकी स्कूलिंग, उनका बचपन, उसकी यादें। आल्हाद-विषाद के प्रसंग । सब कुछ वे वही छोड़ आती हैं और विवाह के बाद नए सिरे से ज़िंदगी शुरू करती है। माँ के साथ भी यही हुआ। हमने कभी उनके बचपन को जानने की कोशिश नहीं की लिहाजा हमें अपने ननिहाल की वंशावली के संबंध में कुछ भी ज्ञात नहीं। यह हमारी बड़ी भूल रही। मुझे यह भूल तब समझ में आई जब माँ की छत्रछाया में गुज़री ज़िंदगी की यादों में गोते लगाते समय महसूस हुआ कि मैं उनके बारे में कितना कम जानता हूँ जबकि ज़िंदगी का पूरा इतिहास उनके साथ था विशेषकर पिताजी के संघर्ष के दिनों की वे साक्षी थीं और सहभागी भी। यानी हर दृष्टि से सबसे क़रीब। पिताजी के गुज़रने के बाद वे जो कुछ भी बताती वह यकीनन अद्भुत होता। पिताजी का व्यक्तित्व, उनकी पारिवारिक ज़िंदगी, उनके मैत्री संबंध व रचनात्मकता पर कुछ नई जानकारियाँ सामने आतीं। अपने ज़माने की बहुत सी बातें शेयर करने की उनकी इच्छा रहती थी लेकिन मैं ही कन्नी काट लेता था। अलबत्ता उनसे मिलने जो भी आता, वह घंटे, दो घंटे से पहिले उठ नहीं सकता था। बहरहाल चूँकि बात माँ की पैदाइश की है तो तिथि ज्ञात भी रहती तो उसका उपयोग आयु को ठीक-ठीक जानने से अधिक न होता। दरअसल उस ज़माने में जन्मदिन पर परिवार में उत्सव जैसा कुछ नहीं होता था। माँ का तो सवाल ही नहीं था , पर मुझे ज्ञात नहीं कि पिताजी का जन्मदिन भी कभी मनाया गया हो जबकि तिथि ज्ञात थी। दरअसल बड़ों का जन्मदिन मनाने की परिवार में परम्परा नहीं थी। अलबत्ता बच्चों के जन्मदिन को याद किया जाता था और कोशिश की जाती थी घर में कुछ मीठा बन जाए। वरना शक्कर तो रहती ही थी । उसी से काम चल जाता था।

खैर माँ को अपनी जन्म तारीख़ का याद न रहना कोई असाधारण बात नहीं थी। उस काल-खंड में आमतौर पर साधारण परिवारों में ऐसा कम ही होता था कि शिशु के पैदा होने के बाद किसी डायरी में या काग़ज़ पर जन्मतिथि व समय लिख लिया जाए। स्कूल दाख़िला , उम्र के सात वर्ष पूर्ण होने पर ही होता था। अत: दाखिले के समय अनुमान के आधार पर पर तारीखें लिखा दी जाती थी। पिताजी ने भी ऐसी कोई डायरी हम भाई-बहनों की पैदाइश पर नहीं बनाई । पर यह काम दादाजी , माधवराव गोपाल राव मुक्तिबोध ने किया। उन्होंने एक डायरी में ढेर सारे संस्कृत के श्लोकों के अलावा हमारी जन्म तिथि अंकित की। बाक़ायदा जन्म कुंडलियाँ भी बनाई। दादाजी थे उज्जैन के शहर कोतवाल पर मैं उन्हें पुलिस की वर्दी में नहीं देख पाया। हमारे छुटपन में ही , वे रिटायर हो चुके थे। वे ज्योतिष के अच्छे ज्ञाता थे। पिताजी की भी ज्योतिष विज्ञान में खासी रूचि थी। चूंकि मेरी हथेली पर एक -दूसरे को काटती-पिटती रेखाएं अधिक थीं और अँगूठा भी चौड़ा व भद्दा सा था, माँ के अंगूठे जैसा सो वे जब कभी फ़ुर्सत में होते, मेरी हथेली हाथ में लेकर रेखाएँ पढा करते। कहने का आशय यह कि पिताजी की भविष्य का अनुमान लगाने में भी खासी दिलचस्पी थी। समय से आगे देखने की दृष्टि। जाहिर है ज्योतिष शास्त्र का भी उनका अध्ययन रहा होगा। विज्ञान में उनकी रूचि थी ही। बहरहाल दादाजी की इस डायरी के एक पन्ने पर उन्होंने ज़रूर सबसे छोटे हमारे भाई का नाम , जन्म तिथि व समय अंकित किया था। वह डायरी घर में सुरक्षित है और बहुत सी यादें ताज़ा करती हैं।

आम तौर पर ख्यात व्यक्तियों की पत्नियों का ज्यादा ज़िक्र नहीं होता बशर्ते वे खुद भी ख्यात न हो। ऐसे जोड़े कम ही होते हैं। पर यह बात स्वयंसिद्ध है कि प्राय: हर व्यक्ति की सफलता के पीछे कोई न कोई महिला होती हैं। भले ही वे कम पढ़ी लिखी या अपढ़ ही क्यों न हो। हमारी माँ भी एक साधारण गृहिणी थीं। पाँचवी तक पढ़ी हुई। लेकिन उनकी अध्ययन में रूचि थी। वे तब पिताजी की पहली श्रोता हुआ करती थी जब ज़ोर-ज़ोर से उच्चारित कविताएँ सुनने उन्हें कोई उपलब्ध न होता। हालाँकि ऐसे अवसर कम ही आते होंगे। हमारे सामने तो ऐसा दृश्य नहीं आया पर मां बताया करती थी। दरअसल कवि या लेखक के लिए घर में भी श्रोता की उपलब्धता जरूरी होती है , श्रोता की समझ चाहे जैसी भी हो। प्रसंगवश यह बताना चाहूँगा कि जब कभी मै नागपुर अपने चाचाजी श्री शरच्चंद्र माधव मुक्तिबोध के यहाँ जाता था, तो अवसर मिलते ही वे मुझे अपने सामने बैठा लेते और साहित्य पर देर तक बोला करते थे जबकि मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ता था। वे मराठी के प्रसिद्ध कवि , उपन्यासकार व आलोचक थे। और मैं एक सामान्य छात्र किंतु उनके लिए मैं अच्छा श्रोता था। बिना चूँ -चपड़ किए बैठा रहता। जाहिर है , क्या समझ में आता? मैं नहीं कह सकता माँ कितनी समझ पाती होंगी पर यह निश्चित है कि पिताजी को संतोष होता होगा जैसा कि चाचाजी को होता था। मुझे सुनाकर उनके चेहरे पर चमक आ जाती थी। शायद माँ के साथ भी ऐसा ही होता होगा। वह भी मूक श्रोता रही होंगी लेकिन जैसा मैने कहा, माँ को कविताएँ सुनाने के अवसर क्वचित ही आते होंगे क्योंकि पिताजी की मित्र-मंडली बड़ी थी और रोज कोई न कोई घर पहुँच ही जाया करता था। फिर भी माँ का श्रोता होना एक अलग बात थी। माँ का अध्ययन के प्रति अनुराग था ही, गला भी बहुत मीठा था। पर अपनी गायिका को कभी उन्होंने बाहर नहीं आने दिया। शायद घर-गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों ने उन्हें वैसा मौका नही दिया या उन्होंने जानबूझकर उसे दबाए रखा। पर वे गुनगुनाती थीं और जब उनका मूड बनता , हमें रात को सोने से पहले मराठी भाव गीत सुनाती थी। उन्हें इस बात का भी फ़ख़्र था कि बचपन में वे इंदौर में सुर-सम्राज्ञी लता मंगेशकर की पड़ोसी थी। पर बाद में कभी उन्होने उनसे मिलने की कोशिश नहीं की। खतो-खतावत का तो ख़ैर कोई प्रश्न ही नहीं था।

मां मिलनसार व सरल स्वभाव की थीं। ममतामयी। पिताजी यायावर थे। आज यहाँ , कल वहाँ। नौकरी के सिलसिलें में वे बहुत भटके। और माँ को भी भटकाते रहे। कल्पना की जा सकती है कि ख़ानाबदोश जैसी ज़िंदगी वाली ऐसी गृहस्थी कितनी तकलीफें झेलती रही होंगी। आर्थिक व पारिवारिक स्वास्थ्य की मार पिताजी पर उनकी कुल उम्र तक बेहिसाब पड़ती रही। लगभग ताउम्र चली आर्थिक विपन्नता व बीमारी की वजह से हलाकान होना स्वाभाविक है लेकिन वे दोनों लड़ते रहे। माँ ने गरीबी का रोना कभी नहीं रोया । ख़्वाहिशें रहीं भी होंगी तो भी उन्होंने न तो कभी हमारे, न कभी पिताजी के सामने जाहिर की। जितना व जैसा था, उन्हें ही पर्याप्त मानकर घर चलाती रहीं। वैसे भी जितनी बड़ी चादर हो, उसके हिसाब से ही पैर फैलाए जाएं तो एक गहरे आत्मसंतोष का भाव जगता है जो परिस्थितियों को हावी नहीं होने देता। गरीब घरों के बच्चों को कहाँ गरीबी का अहसास होता है। वे अपनी दिन-दुनिया में मस्त रहते हैं। हम भी मस्त थे, माँ -पिताजी की सारी चिंताओं से बेख़बर। वह उम्र ही कुछ ऐसी थी।

माँ को देखा हमेशा काम करते हुए । अपार व्यस्तता । मुझे नागपुर के दिनों का स्मरण है। मोहल्ला नई शुक्रवारी। शायद 1953-54। किराए का कच्चा मकान। तब मेरी उम्र स्कूल जाने लायक नहीं थी। मैं देखता था, पिताजी देर रात घर लौटते और माँ दरवाज़े के चौखट पर बैठे-बैठे उनका इंतज़ार करती। वे जल्दी घर लौट आएँ इसके लिए टोटके भी करती। मैंने उन्हें किसी बात पर एक -दूसरे झगड़ते, वाद-विवाद करते , उलाहना देते कभी नहीं देखा जबकि पिताजी के मित्रगणों का सुबह-शाम, लगभग प्रत्येक दिन घर में डेरा जमा ही रहता था और जाहिर है उनके सत्कार में अनेक बार चाय व कभी-कभी नाश्ता बनाना पड़ता था। पर माँ के चेहरे पर कभी शिकन नहीं आती थी। वे इस बात से भी नहीं चिढ़ती थी कि बैठकें घंटों चलती है। विशेषकर छुट्टियों के दिनों में व रात्रि में भी। यह ग़ज़ब का संयम था। दरअसल वे मेज़बानी से आनंदित ही होती थी और पिताजी के मित्रों से बात करने में उन्हें संकोच नहीं होता था, कोई झिझक नहीं थी। जहाँ तक मुझे याद है , नागपुर के दिनों में अलग-अलग अंतराल में प्राय: रोज़ बैठक देने वालों में प्रमुख थे सर्वश्री नरेश मेहता, जीवन लाल वर्मा विद्रोही , स्वामी कृष्णानंद सोख्ता , प्रमोद वर्मा , शैलेंद्र कुमार , भीष्म आर्य , भाऊ समर्थ इत्यादि। पिताजी के गुज़रने के बाद यादें ही माँ का संबल थी। हमारी बातचीत मे अक्सर बीते दिन आ ही जाते थे और फिर वह अलग दिशा में चली जाती थी। जाहिर है हम पक जाते थे और विषयान्तर करने की कोशिश करते। पर वे नहीं रूकती थीं। पिताजी को याद करते हुए उनके आँसू निकल आते थे। उनकी इच्छा रहती थी कि लोग घर आएँ। जब भूले-भटके कोई आ जाता तो वे बहुत प्रसन्न होती थी। हरिशंकर परसाई , प्रमोद वर्मा , के.के. श्रीवास्तव ,बाबा नागार्जुन, कृष्णा सोबती , विष्णु चन्द्र शास्त्री , नरेश सक्सेना , दूधनाथ सिंह , शिव मंगल सिंह सुमन आदि जब भी रायपुर आए , माँ से मिलने घर ज़रूर आए। अशोक वाजपेयी नौकरी के अपने शुरूआती दौर मे रायपुर में पदस्थ रहे और विनोद कुमार शुक्ल, तो ख़ैर घर के ही हैं।

कह सकते हैं कि मां को पूरा आकाश कभी नहीं मिला पर पिताजी के जीवन-संघर्ष से उपजी पीड़ा व मायूसी को कमतर करने में उनका अपूर्व योगदान रहा। उज्जैन, इंदौर, शुजालपुर , जबलपुर , बनारस , इलाहाबाद , नागपुर और अंतत: राजनांदगाँव। पड़ाव-दर पडाव वह गृहस्थी का बोझ उठाए पिताजी के साथ भटकती रही। पिताजी की बीमारी के आठ दस महीनों में उन्होंने उनकी बहुत सेवा-सुश्रृषा की। राजनांदगाँव में घर में , फिर हमीदिया हाॅस्पिटल भोपाल और अंत में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली में। माँ ने न दिन देखा न रात, पिताजी की देखभाल करती रही। 11 सितंबर 1964 को जब पिताजी का देहांत हुआ, वे पूरी तरह से टूट चुकी थीं पर हमारे चेहरे उनके सामने थे जिनकी ज़िंदगियाँ उन्हें बनानी थी। संघर्ष के उन दिनों में जब मानसिक रूप से थक जाती थी तो पिताजी को याद करते हुए कहती थी कि मौत उन्हें आनी चाहिए थी , पिताजी को नहीं। जब -जब ऐसे प्रसंग आते, हम विषयान्तर करने की कोशिश करते पर भीगे स्वरों में वे यह भी कहती थी कि कम उम्र में उन्होंने इतना सारा लिखा यदि वे जीवित रहते तो न जाने कितना कुछ लिखते। यह सच वाकई कितना बड़ा था।

राजनांदगाँव में वे दोनों कभी साथ-साथ घूमने गए हों, याद नहीं। शायद कभी नहीं। सैर-सपाटे का सवाल ही नही था क्यों कि घर की परिस्थितियां वैसी नहीं थी। फिर उस दौर में घर में दादा-दादी के रहते जोड़ी में बाहर निकलना ज़रा कठिन था। हालाँकि साल भर में तीन चार महीने ही वे हमारे यहाँ , वह भी राजनांदगाँव में , जब पिताजी कुछ व्यवस्थित हो गए थे , रहते थे। अलबत्ता नागपुर के दिनों में माँ व पिताजी हमें साथ लेकर कभी-कभी अपने दोस्तों नरेश मेहता, भीष्म आर्य, कामरेड मोटे , शैलेंद्र कुमार , भाऊ समर्थ व विद्रोही जी के यहां सपरिवार आना-जाना करते थे। नागपुर में पिताजी के साथ हमने फ़िल्में भी देखी । एक का नाम याद है -झाँसी की रानी। राजनांदगाव में भी यदा-कदा, आई की फ़रमाइश पर , पिताजी हमें टाकीज छोड़ देते थे। पर बाहरी मनोरंजन के ऐसे अवसर कम ही आते थे। माँ ने अपनी सहेली -मंडली बना रखी थी। जब भी समय मिलता वे हो आती या उन्हें घर बुला लेतीं। वे शुजालपुर में गुज़रे हुए दिनों को बहुत याद करतीं जहाँ उनकी पक्की सहेलियों में रेखा जैन जी थी। पिताजी के घनिष्ठ मित्र नेमिचन्द्र जैन जी की पत्नी। नाट्यकर्मी। शुजालपुर के बाद वे दिल्ली में थीं और पत्रों के जरिए वे मिलती थीं। जब कभी रंगमंचीय कार्यों के सिलसिले में उनका भिलाई प्रवास हुआ, दोनों सहेलियों की ख़ूब मुलाक़ातें व बातें होती रहीं। वे रायपुर भी आईं और हमारे घर ठहरीं। पर मां पिताजी के न रहने के बाद कहीं न जा पाईं। उनका बचा हुआ संसार सिर्फ दो शहरों भिलाई व रायपुर तक सीमित रहा। जबकि वे बार-बार रेखा जी से मिलने दिल्ली जाने की इच्छा व्यक्त करती थीं लेकिन नहीं जा पाईं । साथ का सवाल था। कौन ले जाता ? हम अपनी -अपनी नौकरियों में व्यस्त थे। मां कहती रहीं और मैं टालता रहा। आख़िरकार उनकी यह इच्छा पूरी न हो सकी और एक सुबह स्तब्धकारी खबर आई कि रेखाजी नहीं रहीं। उस दिन और अगले कुछ दिन माँ गुमसुम सी रही। और करीब एक महीने बाद वे भी चल बसीं।

सभी माएं एक जैसी ही हुआ करती है। ममता से भरी हुई। बेटे-बेटियों के प्रति उसकी चिंता सर्वाधिक होती है। एक क़िस्सा नागपुर का है। मेरी उम्र 7-8 बरस रही होगी। सुबह की पाठशाला थी। घर लौटते ही सीधे रसोई में घुसता था। ऐसे ही एक दिन स्कूल से लौटने के बाद खाना खाने बैठा। माँ ने खाना परोसा। खुद भी भोजन करने बैठ गईं। खाना खाते-खाते पतेली से पुन: दाल लेने उन्होंने डाव ( बडा सा चम्मच ) डाला और उसमें दाल के साथ ही उबली और फैलकर मोटी हुई छिपकली आ गई। छिपकली देखते ही माँ को उबकाई आने लगी और वे भागकर नहानी खोली में उल्टियाँ करने चली गई। लेकिन छिपकली देखकर मुझे न घिन आई, न जी मचला और न ही कै का अहसास हुआ। ढेर सारी उल्टी करने के बाद माँ ने मेरे लिए भी यही कोशिश की। पर मुझे उल्टियां नहीं आई। माँ बहुत ही घबरा गई। मुझे लेकर वे जल्दी जल्दी , लगभग दौड़ते हुए ,पास ही के साप्ताहिक समाचार पत्र नया ख़ून के दफ़्तर ले गई जहाँ पिताजी काम करते थे। हम पहुँचे। पिताजी आफ़िस के बाहर आए। माँ ने उन्हें बताया। पिताजी के भी माथे पर चिंता की लकीरें पड़ीं और बिना देर किए वे हमें सीधे मेयो अस्पताल ले गए। उस ज़माने के इस प्रसिद्ध सरकारी अस्पताल में माँ और मुझे , दोनों को भर्ती किया गया। माँ तो जल्दी ही ठीक हो गई पर मुझे आठ-दस दिन लग गए। इस दौरान वे सतत मेरे साथ बनी रहीं।

बचपन तो ख़ैर बचपन है , पर वयस्क होने के बाद भी मैं बिना माँ के रह नहीं सकता था। हायर सेंकेंडरी करने के बाद जब भिलाई नगर से साइंस कालेज रायपुर आया तो विवश होकर बेमन से मुझे हॉस्टल में रहना पड़ा। माँ को छोड़कर अकेले रहने के वे दिन बहुत कठोर थे। बमुश्किल एक-दो महीने काटे और फिर ज़िद करके माँ को रायपुर ले आया। पुरानी बस्ती में मकान किराए पर लिया। माँ के साथ छोटे भाई व बड़ी बहन भी रायपुर आ गए और भिलाई के अतिरिक्त जहाँ बड़े भाई थे, हमारा एक और बसेरा रायपुर हो गया। 1967 से हम यहीं है हालाँकि अब माँ नहीं हैं।

बेटे के रूप में हम माँ को कितना सुख दे पाते हैं? पता नहीं। सोचने, समझने व संबंधों को जीने का सबका अलग-अलग नज़रिया होता है।लेकिन दुनिया की प्रत्येक माँ का नि:संदेह सबसे बड़ा सुख यही कि वह बेटों के साथ रहती है तथा उनके सुख में अपना सुख तलाशती है तथा अनुभूत करती है। इस मायने में हमारी माँ सुखी थी क्योंकि हम ख़ुशहाल थे। संयुक्त परिवार में थे और हम भी उनकी छत्रछाया में चिंतामुक्त थे। मैं कह सकता हूँ कि मेरी उन्हें कुछ ज्यादा ही फिक्र थी और जहाँ ज्यादा चिंताएँ होती है वहाँ प्रेम भी ज्यादा होता है। दरअसल बचपन में मुझे दमे की शिकायत थी जो करीब 30 साल की उम्र तक बनी रही। जब-जब दमे के अटैक आते थे, माँ मेरे पास से हिलती नहीं थी। बिस्तर पर घंटों मुझे गोद में लिए बैठी रहती थीं। मेरे बड़े होने और कालेज की पढ़ाई पूर्ण होने तक यह सिलसिला चला । उन्हें तब चैन आया जब दमे की शिकायत आश्चर्य जनक ढंग से दूर हो गई। यह उनकी तपस्या का ही परिणाम था कि मैं एकदम स्वस्थ हो गया। पर दमे के वे अटैक, माँ की गोद व सरकारी अस्पताल में अनेक बार भर्ती के दौरान घंटों सिरहाने बैठी व व्याकुल नज़रों से मेरी ओर देखती माँ , मेरी नजरों से ओझल कभी नहीं हुई। वे दृश्य जस के तस आत्मा में बसे हुए हैं।

यह माँ व पिताजी का ही प्रताप व आशीर्वाद था कि उन्होंने खुद दु:ख झेले, तकलीफें बर्दाश्त कर लीं पर हम पर आँच नहीं आने दी। हमें इतना क़ाबिल बना दिया कि उम्र के पड़ाव दर पड़ाव पार करते हुए हम एक साधारण मध्यम वर्गीय परिवार की तरह ख़ुशगवार ज़िंदगी जी रहे हैं। माँ को यह सुख बहुत बाद में नसीब हुआ। वे जब तक रहीं ,हमें इस बात का अहसास ही नहीं रहा कि नौकरी-चाकरी की तमाम व्यस्तताओं के बावजूद हमें कुछ वक्त माँ के लिए भी निकालना चाहिए जैसा कि पिताजी हमारे दादा -दादी के लिए निकालते थे। दादाजी को हर सुबह अंग्रेज़ी अखबार प्री प्रेस जनरल या टाइम्स आफ इंडिया की ख़बरें पढ़कर सुनाना तथा कालेज से लौटने के बाद घंटे-आधे घंटे दादा-दादी के पास बैठना उनका रोज का काम था। पर मैं माँ के साथ ऐसा नियमित रूप से नहीं कर सका। यह अहसास तीव्र था कि माँ घर में ही तो है, रोज देखता हूँ , बातचीत भी होती है , बस पास बैठना नहीं होता। आज नहीं तो कल बैठ लेंगे। लेकिन यह लापरवाही तब बहुत अखरती है जब व्यक्ति गुज़र जाता है। यह अपराध बोध फिर शेष ज़िंदगी में पीछा नहीं छोड़ता। यादें मर्म को भेदती रहती हैं। मैं उन दिनों को याद करता हूँ , एक दृश्य है -मैं दफ़्तर जाने घर की पहली मंज़िल से नीचे उतर रहा हूँ और पोर्च में कुर्सी पर बैठी माँ रूकने लिए कहती है। और मैं , समय रहा तो उनके पास जाता हूँ नहीं रहा तो अनसुना कर देता हूँ पर माँ ने कभी इस बात बुरा नहीं माना। वे उदारमना थीं, वस्तुस्थिति को समझती थी। देवेन्द्र नगर का वह मकान अब हमारा नहीं है किंतु मुझे पुकारती उनकी वह पुकार कहीं खोई नहीं है , वह कानों में गूँजती रहती है – ‘ दिव्या इकडे ये।’

अपने अंतिम समय वे बीमार रहीं। करीब एक-डेढ़ माह। मृत्यु से कुछ पूर्व उनकी स्मृति का भी लोप हो गया। वे अब नहीं है तो यह बात मुझे कचोटती रहती है कि मैंने उन्हें वक्त क्यों नहीं दिया। सुबह -शाम प्रतिदिन घंटे आधे घंटे उनके पास क्यों नहीं बैठा। वे अपनी मित्र रेखा जैन से मिलने दिल्ली जाना चाहती थीं, क्यों नहीं ले गया। मुझे इस बात का भी अफ़सोस है कि मैंने अपने नाना-नानी के बारे मे उनसे जानने की कोशिश क्यों नहीं की। बचपन की उनकी यादों को क्यों नही कुरेदा। क्यों नही विवाह के बाद जीवन-व्यापन के संघर्ष पर उनसे बातचीत की। यह बड़ी चूक थी। दरअसल कभी ख़्याल ही नहीं आया कि अपने ननिहाल के पक्ष को, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि को अधिक गहराई से जानने का प्रयास करना चाहिए। यही वजह है कि पिताजी के बारे कहने के लिए बहुत कुछ है जबकि माँ के संबंध विशेष कुछ नहीं । इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि हमें लगता था ,यह अहसास गहरा था कि माँ कहाँ जाने वाली है , वह हमेशा हमारे साथ रहेंगी। जब-जब वह कहती थी कि मुझे कुछ हो जाएगा तो मुश्किल होगी तो मैं कहता – चिंता मत करो। तुम्हें कुछ नहीं होगा, बीमार हो, जल्दी ठीक हो जाओगी। इस पर वे बोलती कुछ नहीं थी पर हमें महसूस होता था कि वह हमारी चिंता में है। अपने अंतिम दिनों में , जब स्मृति-लोप नहीं हुआ था, उन्होंने मुझे बुलाकर अपनी आलमारी में रखा पीतल का डिब्बा निकालवाया और मुझे सौंपते कहा-इसे ले जा। इस छोटे से डिब्बे में एक सोने की चपलाकंठी (चेन) थी , कुछ पुराने सिक्के व एक रूपए का पुराना लेकिन ख़ूब घडी किया हुआ नोट। मेरी आँखें भर आईं। कुछ कहते नहीं बना। मन के भीतर एक सन्नाटा सा खींच गया। माँ के साथ मेरी यह आख़िरी बातचीत थी। रात बीती। अगले दिन वे नीम बेहोशी में चली गईं। पारिवारिक डाक्टर ने जवाब दे दिया। उन्होंने कहा जितने भी दिन है, सेवा कीजिए। लेकिन माँ ने वह मौका भी नहीं दिया।

दिल के जो बहुत करीब होते हैं , वे हमेशा ही करीब रहते हैं, भले ही भौतिक रूप से उनका अस्तित्व रहे या न रहे। माँ का वह डिब्बा मैंने अपने कपड़ों की अपनी आलमारी रखा है। उसे देखता हूँ तो माँ का चेहरा यह पूछते हुए नज़र आता है – ‘ दिव्या , कसा आहेस तू।’

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