Dabi juban se

छत्तीसगढ़ में आंकड़े का खेल…

दबी जुबां से… / सुरेश महापात्र।

‘ सच्चाई को बताने के लिए किसी आंकड़े बाज की जरूरत नहीं पड़ना चाहिए… इसकी जिम्मेदारी सरकार को खुद निभानी होगी…। क्योंकि आंकड़े फर्जी होते हैं उसे जैसा चाहों वैसा दिखा दो… भले ही जमीन पर परिणाम आंकड़ों के उलट साबित होते रहें…’

छत्तीसगढ़ में भी देश के दूसरे हिस्सों की तरह ही समूचा व्यापार ठप है फिर भी हमें खुशी है कि हमारे प्रदेश में बेरोजगारी की दर सबसे कम है। आरबीआई ने अपनी रिपोर्ट में भी राज्य सरकार के प्रयासों की प्रशंसा की है। केंद्र सरकार इस विपदा की घड़ी में राज्य के पंचायतों को सम्मानित कर रही है। इससे पहले मंदी के दौर में राज्य में मोटर साइकिल खूब बिकी इसके प्रमाण सरकार ने जारी किए थे। बताया था कि धान ने बाजार में धन की बारिश की है। यानी आंकड़ों के हिसाब से सब कुछ ठीक है…

पूर्व में जब डा. साहब मुख्यमंत्री हुआ करते थे तो तब प्रदेश में किसी तरह की विपदा की घड़ी आती थी तो दिल्ली में आंकड़ों के सौदागर अपना माल लेकर फोन खड़खड़ा दिया करते थे। दूसरे दिन इन आंकड़ों के साथ छत्तीसगढ़ नंबर वन की खबर भी छपी होती थी। राज्य के प्रमुख अखबारों में निगेटिव खबरों के साथ सरकार की इस पाजिटिव खबर को परोसना मीडिया हाउस की मजबूरी का हिस्सा भी माना जाता था। ऐसा नहीं है कि इसकी कोई कीमत नहीं मिलती थी… बल्कि बकायदा स्पेस के आधार पर कीमत मिलती थी।

पर फिलहाल छत्तीसगढ़ में ऐसा कोई अवसर नहीं है कि जिसके लिए आंकड़ेबाज अपना सौदा करने पहुंच जाएं और उनका माल बिक भी जाए…। इस समय पूरी दुनिया में एक जैसा हाल है कोई देश किसी देश की और कोई राज्य सरकार किसी दूसरे राज्य की कमी गिना ही नहीं सकती…। इसके लिए वक्त है। ऐसे में कोई सरकार क्यों भला आंकड़े परचेस करके अपनी जनता को परोसेगी? 

इसीलिए यह बात मानना ही पड़ेगा कि जब पूरे देश में बरोजगारी और विकास दर को लेकर भयंकर आंकड़े आ रहे हैं तो छत्तीसगढ़ में इसका रिकार्ड क्यों ठीक—ठाक है? इसकी वजह बड़ी है भूपेश सरकार को सबसे ज्यादा चिंता ग्रामीण इलाकों की है। वे लगातार ग्रामीण भारत को विकास के रास्ते में लाने के लिए जुगत लगा रहे हैं।

यही वजह है कि नरवा, गरवा, घुरवा और बारी की महती योजना का प्रतिफल भी इस लॉकडाउन में बाहर निखर कर सामने आया है। इसमें कोई दो मत नहीं कि यदि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को लेकर गंभीर प्रयास किए गए होते तो इन दिनों पैदल चलकर अपने गांव पहुंचने की जिद में मजदूरों को जान गंवाने की नौबत ही नहीं आती…।

खैर यह बड़ा प्रयोग है महज एक बरस में इसके बड़े परिणाम भले ही सामने ना आएं पर आने वाले समय में इसके सकारात्मक परिणाम पूरे देश के लिए मिसाल बनकर सामने दिखने लगेंगे… और हां! इस सच्चाई को बताने के लिए किसी आंकड़े बाज की जरूरत नहीं पड़ना चाहिए… इसकी जिम्मेदारी सरकार को खुद निभानी होगी…। क्योंकि आंकड़े फर्जी होते हैं उसे जैसा चाहों वैसा दिखा दो… भले ही जमीन पर परिणाम आंकड़ों के उलट साबित होते रहें…

आंकड़ों की ही बात…

देश में कोरोना को लेकर महासंग्राम मचा हुआ है। इसमें छत्तीसगढ़ की स्थिति पहले ही दिन से सही बनी हुई है। यानी हालात नियंत्रण में है। लॉकडाउन प्रथम चरण के अंत से पूर्व ऐसा लगने लगा था कि अब 21 अप्रेल के बाद हम विजेता हैं। पर कटघोरा का बेहिसाब खाता खुल गया। फिर लगा लॉकडाउन 2.0 के बाद सब कुशल मंगल रहेगा पर सूरजपुर, कवर्धा और दुर्ग ने 21 आंकड़े दे दिए। अब हम कुल 57 हैं। उपलब्धि 36 स्वस्थ भी हुए…। राज्य सरकार ने रायपुर को रेड से हटाने की चिठ्ठी सुबह लिखी और शाम को पड़ोस के दुर्ग में आठ नए मामले सामने आ गए…। आज लॉक डाउन 3.0 के लिए सरकार फिर एक बार तैयार है नए इलाकों में नए आंकड़ों के साथ…

छात्र और मजदूर… सरकार आंकड़ों से मजबूर…

कोटा से बच्चों को लाने का फैसला सही था या गलत इसे लेकर राज्य सरकार को दोनों तरफ की बातें सुनने की नौबत है। आलोचक बोल रहे हैं कि बच्चों को तो लाया गया पर मजदूरों के लिए सरकार केंद्र के आदेश का इंतजार करती रही। पर भूपेश बाबू ने मामले को समझा और बच्चों को लाने के लिए गाड़ी भेजने से पहले ही मजदूरों को लेकर अपना एफर्ट दिखाना शुरू कर दिया…। कोटा से बच्चों को लाया गया अब मुसीबत तब बढ़ी जब बच्चों के लिए क्वैंरटाइन सेंटर की शिकायतें सोशल मीडिया में छाने लगीं। अब सुना है सरकार बच्चों के लिए होम क्वैंरनटाइन के विकल्प पर निर्णय लेने की स्थिति में है। क्या ऐसा मजदूरों के लिए भी करना संभव होगा? फिलहाल सरकार दूसरे राज्यों के साथ मजदूरों के आंकड़ों पर समन्वय स्थापित कर रही है।

शिक्षा के आंकड़े, दावों से प्रसन्न सरकार…

लॉकडाउन के इस दौर में रामायण, महाभारत और चाणक्य जैसे धारावाहिकों का पुराना दौर लौट आया है। पैरेंट्स टीवी के सामने डटे हुए हैं और बच्चों को मोबाइल के सामने डटाने के लिए शिक्षाविभाग जुगाड़ बनाए बैठा है। बहुत से पालकों के पास टीवी तो है पर स्मार्टफोन का जुगाड़ नहीं है। और सरकार अपने शिक्षा विभाग के दिए जा रहे संस्कार के करोड़ों विजिटर के दावों से ही प्रसन्न है। उसे लग रहा है पूरी बाजी हाथ लग गई है…। सच्चाई तो यह है कि मैदान में हकीकत वैसी नहीं है जितने का आंकड़ा सरकार के सामने परोसा जा रहा है। 

सिंगल ‘सुपर ब्यूरोक्रेट…’

नई सरकार को डेढ़ बरस पूरे होने को हैं। हर कोई इस सरकार के संभावित सुपर ब्यूरोक्रेट को तलाश रहा है। यानी ऐसा ब्यूरोक्रेट जो सरकार के मुखिया से अपनी बात मनवा सके। एक ट्रायल फेल हो चुका है और दूसरे का ट्रायल चल रहा है। बताते हैं कि भूपेश बाबू ताड़ने में देरी नहीं करते… इसीलिए भारी मशक्कत लगेगी… पर एक बात बता दें कि ‘सरकार बदलती है तो केवल चेहरा बदलता है सत्ता की तासीर नहीं…’ आज नहीं तो कल एक पूर्ण भरोसेमंद सुपर मैन चाबी लेकर सामने दिखेगा… कोशिश जारी है… पर यह जान लें कि सरकार के लिए नियुक्त सलाहकार कभी सुपर नहीं हो सकते।

और अंत में…
सरकार ने करीब डेढ़ लाख मजदूरों के प्रदेश से बाहर होने का आंकड़ा प्रस्तुत किया है। ये घट—बढ़ भी सकता है। पर सवाल यह है कि जब यहां सब कुछ ठीक है तो मजदूर काम की तलाश में दूसरे प्रदेश गए क्यों…?

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