AAJ-KALEditorial

शहरीकरण की कीमत चुका रहे हैं प्रवासी मजदूर…

  • सुदीप ठाकुर.

कोरोना वायरस के महामारी का रूप लेने के बाद यह बात दर्जनों बार दोहराई जा चुकी है कि असाधारण समय में असाधारण कदम उठाने पड़ते हैं। इसी का नतीजा है कि चीन, यूरोप के अनेक देशों और अमेरिका के अनेक हिस्सों में पूर्ण या आंशिक लॉकडाउन के बाद भारत में भी 24 मार्च की मध्य रात्रि के बाद से पूर्ण लॉकडाउन लागू किया गया है। इस महामारी से निपटने के लिए यही सबसे कारगर तरीका है।

लेकिन इसे दरकिनार कर जिस तरह से दिल्ली और एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) से अचानक प्रवासी मजदूरों का काफिला अपने घरों की ओर चल पड़ा, उसने कोरोना से उपजे संकट को बढ़ा दिया है। दिल्ली के आनंदविहार और उससे सटे गाजियाबाद के कौशांबी स्थित बस अड्डों, दिल्ली से मेरठ की ओर जाने वाले नेशनल हाईवे, नोएड और ग्रेटर नोएडा होकर आगरा जाने वाले यमुना एक्सप्रेस-वे में जिस तरह से प्रवासी मजदूरों का हुजूम उमड़ पड़ा उससे कोरोना के संक्रमण के लिए जरूरी ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ बेमानी हो गई।

सिर पर लदी पोटलियों में अपना वजूद लिए थके-हारे पैदल चलते लोगों की स्तब्ध करने वाली ऐसी तस्वीरें आंध्र प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात से भी आई हैं। उनमें से कई को पता नहीं था कि वह कब तक अपने गांव पहुंचेंगे। इनमें छोटे बच्चों से लेकर महिलाएं और बुजुर्ग तक शामिल थे। वह बस किसी तरह से अपने घर पहुंच जाना चाहते हैं।

आखिरकार शनिवार देर शाम उत्तर प्रदेश सरकार ने एक हजार बसों का इंतजाम कर उन्हें गंतव्य तक पहुंचाने का इंतजाम किया है। इसके बावजूद इन पंक्तियों के लेखक ने आज सुबह भी नेशनल हाईवे-24 और आनंदविहार तथा कौशांबी के बस अड्डों में लोगों को बस में सवार होते और पैदल चलते देखा।

ये लोग पैदल (और अब कुछ बसों में भी) राजधानी दिल्ली से उत्तर प्रदेश और बिहार या अन्य प्रदेशों की ओर जिन नेशनल हाईवे या एक्सप्रेस वे से होकर गुजरे हैं या गुजर रहे हैं, उनके किनारे सैकड़ों बहुमंजिला आवासीय कॉलोनियां बनी हुई हैं। ये कॉलोनियां उस उभरते भारत की कहानी कहती नजर आती हैं, जिसके दावे उदारीकरण और नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद पिछले कई दशकों से किए जा रहे हैं।

जो लोग एक-दो साल से यदि दिल्ली से गाजियाबाद की ओर न आए हों, तो उन्हें पता ही नहीं चलेगा कि यहां बने फ्लाई ओवर और एक्सप्रेस-वे, ने कैसे सफर को आसान कर दिया है। इतना कि यहां सड़क किनारे लगे रियल एस्टेट बिल्डरों के होर्डिंग दावा करते नहीं थकते कि कैसे आप सर्वसुविधायुक्त इन कॉलोनियों से महज बीस या पच्चीस मिनट में कनॉट प्लेस या दिल्ली की अन्य प्राइम जगहों तक पहुंच सकते हैं। आप चाहे इंडिया गेट और अब ध्वस्त हो रहे प्रगति मैदान से होकर आएं या बारहपुला (बाबा बंदा बहादुर) फ्लाईओवर से उनके दावों को खारिज नहीं कर सकते।

दिल्ली से सटे गाजियाबाद, नोएडा और ग्रेटर नोएडा की इन आवासीय सोसाइटी में देश के विभिन्न हिस्सों से यहां नौकरियां करने आए लाखों लोग रहते हैं। ये भी प्रवासी हैं, मगर उन प्रवासी मजदूरों से अलग जिन्होंने इन बहुमंजिला इमारतों को बनाया है।

यह एक अलग कहानी है कि ये बहुमंजिला इमारतें जहां खड़ी हैं, वहां कभी खेत हुआ करते थे। जमीन अधिग्रहण की लंबी लड़ाई के बाद ये इमारतें खड़ी हुई हैं। जमीन अधिग्रहण के कुछ झगड़े अब भी अदालतों में हैं। यह भी अलग कहानी है कि देश के सुदूर इलाकों से डेढ़ दो-हजार किलोमीटर का सफर कर यहां आ बसे अनेक लोगों को फ्लैट की खरीद में बड़े बिल्डरों ने ठग लिया।

असल कहानी ये है कि ये बहुमंजिला इमारतें विकास की अवधारणा के विरोधाभासों को दिखाती हैं। विगत कई दशकों से चाहे केंद्र में कोई भी सरकार रही हो, उसका जोर तेज शहरीकरण पर रहा है। यदि आप गूगल सर्च करें, तो आपको ऐसे दर्जनों लिंक मिल जाएंगे जिनसे पता चलेगा कि यदि भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूत करना है, तो शहरीकरण की प्रक्रिया को तेज करना होगा। ऐसे सुझाव भी मिल जाएंगे कि भारत को अभी पांच सौ से अधिक नए शहर बसाने की जरूरत है।

शहरों की संवहनीयता और आंतरिक प्रवासन से संबंधित संयुक्त राष्ट्र समूह से जुड़े इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पापुलेशन सांइस, मुंबई के प्रोफेसर राम बी भगत ने अपने एक शोध में लिखा है, ‘प्रवासन एक ऐतिहासक प्रक्रिया है जिसने इतिहास, अर्थव्यवस्था और संस्कृति को आकार दिया है।’

भगत आगे लिखते हैं, ‘शहरीकरण और आर्थिक विकास का आपस में गहरा संबंध है। देश की जीडीपी का 65 फीसदी हिस्सा उन शहरी क्षेत्रों से आता है, जहां देश की एक तिहाई आबादी रहती है।’ गौर कीजिए कि शहरीकरण के समर्थकों का एक तर्क यह भी है कि जिस खेती पर साठ फीसदी से अधिक आबादी निर्भर है, उसका जीडीपी में योगदान महज 16 फीसदी के आसपास है।

इसलिए संयुक्त राष्ट्र से लेकर विश्व आर्थिक मंच तक शहरीकरण पर क्यों जोर देते हैं, समझा जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र की 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की 55 फीसदी आबादी शहरी क्षेत्रों में रहती है, जो कि 2050 तक 68 फीसदी हो जाएगी। विश्व बैंक के अनुमान के मुताबिक अभी देश की 34 फीसदी आबादी शहरों में रहती है। अनुमान है कि 2050 तक भारत की पचास फीसदी आबादी शहरों में रहने लगेगी।

जाहिर है, इस शहरीकरण से जुड़ी विभिन्न परियोजनाओं (आवासीय इमारतों से लेकर सड़क जैसे आधारभूत ढांचे) के निर्माण के लिए मजदूरों की जरूरत पड़ती है और पड़ेगी। इसलिए कोरोना का संकट खत्म होने पर प्रवासी मजदूरों की शहरों में वापसी से इनकार नहीं किया जा सकता।
कोरोना ने शहरीकरण और विकास की मौजूदा अवधारणा के भारी असंतुलन को भी सामने ला दिया है। इसी का नतीजा है कि कोरोना जैसी महामारी, जिससे आज सारी दुनिया हिली और डरी हुई है, उसका भय भी इन मजदूरों को अपने घर लौटने से नहीं रोक सका।

हम सबको आज अपने चुने हुए ‘एकांत’ में यह जरूर सोचना चाहिए कि इन मजदूरों से हम साहचर्य क्यों नहीं स्थापित कर सके। उन्हें हम यह भरोसा क्यों नहीं दिला सके कि इस सोशल डिस्टेंसिंग के दौर में हम भावनात्मक रूप से उनके साथ हैं और उन्हें कोई तकलीफ नहीं होने देंगे।

पुनश्चः कई बरस बाद आज सुबह सुबह रायपुर से विनय शर्मा यानी हम सबके विनय भइया का फोन आया, जो छत्तीसगढ़ के शानदार फोटो जर्नलिस्ट हैं। बोले, लॉकडाउन के कारण घर पर हूं। दिल्ली और उसके आसपास मजदूरों का हुजूम देखकर तुम्हारे साथ 1996 में कालाहांडी में अकाल के समय की रिपोर्टिंग याद आ गई। उन्होंने याद दिलाया कि कैसे उस समय वहां गांव के गांव खाली हो गए थे!

लेखक : छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं वर्तमान में दिल्ली में अमर उजाला के स्थानीय संपादक हैं.

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