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डीआरजी के जांबाज थे निशाने पर, हिड़मा ने अपनी मौजूदगी की सूचना चारा डालने फैलाई… इस बीहड़ में माओवादियों का राज… हर बार मात खाई फोर्स…

  • सुरेश महापात्र।

सुकमा जिले के मिनपा इलाके में हालिया मुठभेड़ में पहली बार डीआरजी टीम को सबसे बड़ा नुकसान पहुंचा है। यही वह टीम है जिसे माओवादी अपने लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं। आखिरकार सीआरपीएफ, कोबरा, एसटीएफ, एसएएफ, मिजो बटालियन के बाद डीआरजी की टीम ट्रेप हो गई।

इसी इलाके में सलवा जुड़ूम के दौरान एसपीओ इस्माईल, सूर्या  की सशस्त्र टीम तैयार की गई थी। जिस पर कई बार बेगुनाहों की हत्या का आरोप भी लगा था। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर एसपीओ पद हटा दिया गया। जिन्हें बाद में सहायक पुलिस आरक्षक के पद पर कन्वर्ट कर दिया गया। इसी सहायक आरक्षक पदों से कई जवान डीआरजी के जांबाज लड़ाके ट्रेनिंग देकर बनाए गए।

बस्तर में डीआरजी फिलहाल सबसे ज्यादा आक्रामक और सधी हुई लड़ाई माओवादियों के खिलाफ लड़ रही है। डीआरजी के जवानों को माओवादी टारगेट किए हुए हैं इसके लिए वे पूरी रेकी करने के बाद मौका पाकर हमला करके शिकार बनाने की रणनीति पर ही काम करते रहे। यह पहला मौका है जब माओवादियों के गुरिल्ला युद्ध में डीआरजी फंस गई।

सुकमा से दोरनापाल तक पहुंचने के बाद माओवादियों का वास्तविक इलाका सड़कों के दायीं ओर झांकता है। दोरनापाल से जगरगुंडा की 60 किलोमीटर की दूरी और दोरनापाल से कोंटा करीब 50 किलोमीटर की दूरी, कोंटा से पामेड़ करीब 70 किलोमीटर और पामेड़ से जगरगुंडा करीब 52 किलोमीटर की यह दूरी माओवादियों का आधार क्षेत्र है।

कोंटा से भेज्जी 30 व भेज्जी से किस्टारम तक करीब 30 किलोमीटर का फासला है। चिंतागुफा से भेज्जी करीब 25 किलोमीटर व दोरनापाल से चिंतागुफा तक करीब 30 किलोमीटर यह माओवादियों का सबसे बड़ा केंद्र है। इसी को भेदने के प्रयास में फोर्स मात खाती रही है।

इसी इलाके में बीते 12 बरस में ताड़मेटला में 76 सीआरपीएफ, अर्पलमेटा में 28 एसएएफ, ताड़मेटला में जगरगुंडा थानेदार हेमंत मंडावी समेत 8, कासलपाड़ में 14, बुरकापाल के बाद अब मिनपा में 17 जवानों की शहादत की लंबी फेहरिस्त है। इन चार जगहों के केंद्र के भीतर करीब आठ थाने और फोर्स के 20 से ज्यादा कैंप स्थित हैं।

यहां फोर्स ने माओवादियों के इलाका भेदने की कोशिश में बड़ा नुकसान उठाती रही हैं। विशेषकर दोरनापाल, चिंतागुफा, चिंतलनार, जगरगुंडा, एर्राबोर, कोंटा, भेज्जी, किस्टारम, मरईगुड़ा और पामेड़ थाना क्षेत्र हैं। सभी थाना क्षेत्र में करीब—करीब दो—तीन आर्म्ड फोर्स के कैंप हैं। जिसमें ज्यादातर कैंप सीआरपीएफ के ही हैं।

इन इलाकों में जिला पुलिस को सूचना के आधार पर एसएएफ, डीआरजी की प्रशिक्षित टीमे आपरेशन के लिए विशेष तौर पर रवाना की जाती हैं। ये टीमें जंगल के भीतर आपरेशन करती हैं और उनके लिए बैक व सपोर्ट पार्टी के तौर पर सीआरपीएफ होती है। सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन भी आपरेशन के लिए निकलती है। यह उनकी पुख्ता सूचना पर केंद्रीत होता है।

यह बात अब किसी भी नहीं छिपी है। ना तो सरकार से और ना ही फोर्स से जो मैदान पर लड़ रही है। ऐसी स्थिति में जब भी इस इलाका विशेष में फोर्स घेरने की कोशिश करती है तो उससे हर बार एक ही तरह की रणनीतिक चूक का होना गंभीर सवाल खड़ा करता है।

यह बात अब प्रमाणित होती दिख रही है कि इलाके के सबसे बड़े नक्सल लीडर हिड़मा की ही रणनीति में फोर्स फंस गई। हांलाकि यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि माओवादियों ने हमले के तरीके में कोई बड़ा रणनीतिक परिवर्तन किया हो ऐसा कतई नहीं दिख रहा है। वे पहले भी जिस तरह से फोर्स को घेरते रहे बिल्कुल वैसा ही इस बार भी करके दिखाया है।

विशेषज्ञ बताते हैं कि यह माओवादियों के मोबाइल वार फेयर का अभिन्न हिस्सा है। इसमें माओवादियों की रणनीति पूरी तरह स्पष्ट है वे अपने एक ही सूत्र के साथ जाल बुनते और फंसाते रहे हैं।

यह रणनीति कुछ ऐसी है :

जब शत्रु आगे बढ़े तो आप पीछे हट जाएं

इसका मतलब है शत्रु को अपनी ओर खिंचना ताकि वह ज्यादा आसान टार्गेट बन सके। वह अपने सुरक्षा घेरा को तोड़कर बाहर निकल जाए।

नोट – यहां भी ऐसा ही दिखाई देता है।

जब डेरा जमाए तो परेशान करें

इसका मतलब है सुरक्षा बल घेराबंदी करने डेरा जमाने की कोशिश करे तो उसे सहज टार्गेट के रूप में प्रस्तुत कर परेशान किया जाए ताकि बड़ी सफलता के लोभ में फंसाया जा सके।

नोट – यहां यह भी होता दिखा है।

शत्रु को थकाएं उसके बाद हमला करें

इसका मतलब है सुरक्षा बालों को ज्यादा फायरिंग के लिए उकसाया जाए। इसके लिए रूक-रूककर फायरिंग और देशी पटाखा फोड़कर राउंड खत्म करने के लिए उकसाया जाए।

नोट – यहां यही बयान होता दिख रहा है।

जब थककर शत्रु पीछे हटे तो पीछे लग जाएं और वार करें

इसका मतलब साफ है सुरक्षा बल तभी वापस लौटना सही समझता है जब उसके पास थकान के साथ गोली बारुद कम पड़ने लगे। ऐसे में सुरक्षा बल सुरक्षित वापसी करने को बेताब रहते हैं जिससे आसानी से घेराबंदी किया जा सकता है।

यानी माओवादी अपनी इस रणनीति में जाल बुनने के लिए जानबूझकर के कई तरह के एक्सपोज करती है ताकि फोर्स की टुकड़ी पीछा करने के लिए आगे बढ़ें… इसके लिए कई तरह से फोर्स को बांटने की कोशिश होती है। ताकि एक भी टुकड़ी फोर्स तक पहुंचे तो उसे फंसाया जा सके। इसके लिए उनकी सूचना पद्धति का तोड़ फिलहाल फोर्स नहीं ढूंढ पाई है। ऐसा प्रतीत हो रहा है। आपको बता दें मोबाइल वार फेयर भी गुरिल्ला वार फेयर का ही हिस्सा है।

इसी रणनीति के तहत हिड़मा ने जाल बुना और माओवादियों का टार्गेट डीआरजी ही था। जिसमें वे पूरी तरह सफल हो गए। इस इलाके में डीआरजी की टीम ने कई बार माओवादियों को भारी परेशान किया था। इसकी सबसे बड़ी वजह उनका स्थानीय होना रहा।

शनिवार को जब देर शाम तक करीब डेढ़ दर्जन जवानों के लापता होने की सूचना मुख्यालय तक पहुंची तब भी यही माना जा रहा था कि जो जवान लापता हैं वे डीआरजी के हैं वे निश्चित तौर पर माओवादियों को झांसा देकर सुरक्षित लौट जाएंगे।

पर सबसे बड़ी विकट स्थिति रविवार को तब दिखाई दी जब करीब—करीब मैदानी इलाके में यहां—वहां जवानों के शव बिखरे पड़े थे। दृश्य से स्पष्ट था कि हमले में जवान घायल हुए और बैक पार्टी सुरक्षा के अभाव में जान से हाथ धो बैठे।

यह अनुमान है कि हिड़मा ने अपनी मौजूदगी की सूचना इस तरह से फैलाई कि जिसके आधार पर डीआरजी और एसएएफ की टीम को तैयार कर आगे करके भेजा गया। उसके पीछे कोबरा को बैक पार्टी सपोर्ट बनाकर भेजा गया।

डीआरजी व एसटीएफ की टुकड़ी माओवादियों के झांसे में आ गई और बिना बैक सपोर्ट देखे कुछ ज्यादा ही आगे बढ़ गई। जिसके लिए पूरा जाल बुना गया था। शुरूआती दौर में रूक—रूक कर फायरिंग के बाद जब देर होने लगी तो उत्साही डीआरजी ज्यादा आगे बढ़ गई। जिसका परिणाम सबके सामने है।

बिल्कुल ऐसा ही अन्य घटनाओं में भी देखने को आया है। एक यह तथ्य भी स्थापित हो गया है कि यदि इस इलाके में आपरेशन के दौरान जवान लापता हो जाए तो उसकी शहादत तय है। चाहे मामला ताड़मेटला का हो या अर्पलमेटा का दूसरे दिन बिखरे हुए शव को ढोने के सिवा कोई दूसरा काम नहीं रह जाता…।

तमाम प्रयासों के बावजूद अब तक अबूझ हो चुके इस बीहड़ में शांति के साथ विकास की तकरीर कब स्थापित हो पाएगी यह कहना कठिन है।

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