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जड़ पर वार से जड़ता का शिकार होती कांग्रेस…

  • सुरेश महापात्र.

राजनीति में अगर दिलचस्पी हो तो राजनीति का खेल मनोरंजक है। जिसमें आप इसके भीतर होने वाली हर घटना को गंभीरता से देखते और समझते हैं। राष्ट्रीय परिदृश्य में ऐसा स्पष्ट है। कांग्रेस को अवसर मिला है पर वह सुधारवादी सोच के साथ नहीं होने का खामियाजा भुगत रही है।

मध्य प्रदेश में हालिया घटनाक्रम की रूप रेखा बीते छह महीने से जनता के सामने है। राजस्थान में भी सब कुछ ठीक नहीं है। पंजाब में भी कुछ ऐसा ही है। छत्तीसगढ़ में सत्ता के भीतर खाने सब कुछ ठीक नहीं चल रहा। ऐसा होने का कारण वही जड़ता है जिसका जिक्र ज्योतिरादित्य ने किया है…

फिलहाल भारतीय राजनीति का यह संक्रमण काल है इसमें हिंदुस्तान की दशा और दिशा में तेजी से बदलाव हो रहा है। विशेषकर राजनीति के क्षेत्र में। आज से करीब एक दशक पहले यह कल्पना करना भी असंभव था कि हिंदुस्तान में क्षेत्रीय दलों का दौर बुरी तरह सिमटने लगेगा। पूरे देश में एक क्षत्र राज करने वाली सत्तारूढ़ कांग्रेस किंकर्तब्यमूढ़ होकर केवल घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी बनकर रह जाएगी।

कांग्रेस जैसी सशक्त पार्टी का अस्तित्व इतना खतरे में पड़ जाएगा कि उसके नेताओं को अपनी हार से ज्यादा दूसरे अपने विपक्षी के पराजय पर खुश होने में ही आनंद की अनुभूति हो सकेगी। पर यह सब साफ दिख रहा है।

हिंदुस्तान युवा हो रहा है और कांग्रेस बूढ़ी होती जा रही है। इसमें बुढ़ापा के सारे लक्षण साफ दिख रहे हैं। मसलन बुढ़ापे में दूर दृष्टि का नितांत अभाव हो जाता है, निर्णय लेने की क्षमता क्षीण होने लगती है… अपने—पराए के भेद के लिए एक संकीर्ण सोच अपना स्थान बना लेती है जो नए सोच के लिए सारे रास्ते बंद करती चली जाती है।

ऐसा ही कुछ कांग्रेस के साथ होता दिख रहा है। मंगलवार को ग्वालियर के महाराजा ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सधे हुए शब्दों में जो बांते कही हैं उसका निहितार्थ कांग्रेस अब भी समझ जाए तो उसका बहुत बुरा होने से बचा जा सकता है।

आप देखिए ज्योतिरादित्य से पहले अनेक नेता कांग्रेस छोड़कर गए। कईयों ने अपनी पृथक राजनीतिक पहचान बनाई तो कई उसके कट्टर विरोधी दल भाजपा के सदस्य बनकर पूरी तरह घुल मिल गए। पर जो हालात ज्योतिरादित्य के जाने के बाद दिखाई दे रहे हैं वे कांग्रेस की पीड़ा का प्रदर्शन ही कर रहे हैं। सोशल मीडिया में कांग्रेसी नेता भी पूर्ण सहानुभूति के साथ अपनी बात रख रहे हैं।

यह पीड़ा सिर्फ कांग्रेस के दूसरे व तीसरे दर्जे के नेताओं में ही नहीं है बल्कि आला नेतृत्व भी अब तक इससे उबर नहीं पाया है। यदि ऐसा नहीं होता तो आज कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी करीब डेढ़ साल पुरानी एक तस्वीर जिसमें ज्योतिरादित्य और कमलनाथ दोनों के साथ वे हैं उसे ट्विटर पर शेयर नहीं करते…। वे कमी महसूस कर रहे हैं पर भाजपा में शामिल होने के बाद ज्योतिरादित्य को भला—बुरा नहीं कह सकते यह उनके संकेत हैं।

कांग्रेस की यह स्थिति किसी एक घटना या प्रतिक्रिया का परिणाम नहीं है। यह शैने: शैने: एक के बाद एक कर कई घटनाओं का प्रतिफल है। यूपीए 2 के दौरान ही यह करीब—करीब तय हो गया था कि कांग्रेस के लिए बुरे दिनों की शुरूआत हो चुकी है। मनमोहन सिंह की दूसरी पारी के दौरान आकंठ अहंकार में डूबी कांग्रेस के लिए राज सत्ता के मायने स्थायी प्रतीत होने लगे थे।

उस दौरान हिंदुस्तान में कई घटनाएं एक साथ हुईं जिसमें कांग्रेस अपने भावी नेतृत्व के लिए अवसर तलाशने और स्थापित करने की जद्दोजहद में टिकी थी। यह तो सभी जानते हैं फिर भी इस बात को दूसरे तरीके से समझने की दरकार है। देश के भीतर भ्रष्टाचार, अराजकता और असुरक्षा का भाव आर्थिक तौर पर लोगों की जेब पर सीधे चोट कर रहा था। कांग्रेस चुनावी वर्ष में सुविधाओं की पोटली खोलकर जनमत को हासिल करने की दिशा में बढ़ रही थी। यही उसकी बड़ी भूल रही।

कांग्रेस को पता ही नहीं चला कि देश का युवा अब पहले से ज्यादा सजग हो चुका है। उसके हाथों में सोशल मीडिया का सबसे बड़ा हथियार आ चुका है। अब खबरें दिनों में नहीं पल भर में जनमानस को प्रभावित कर रही हैं। इसके विपरित कांग्रेस अपनी रूढ़ीवादी सोच और विचार के साथ ही खड़े लोगों को अपनाने पर आमदा थी।

कांग्रेस को तब ही साफ संकेत मिल चुके थे जब उनके रहते दिल्ली में 28 सीटें जीतकर आम आदमी पार्टी की सरकार बनी। जिसे उन्होंने समर्थन दिया था। दिल्ली का जनादेश देश के लिए संदेश था कि पूरे देश की सोच सीधे तौर पर बदल रही है। इसके बाद लोक सभा चुनाव में कांग्रेस को मैदान में उतरना था।

बस यहीं कांग्रेस ने बड़ी गलती कर दी। यह वही समय था जब कांग्रेस तेजी से अपने आपको बदलकर अपनी साख बचा सकती थी पर उसने ऐसा नहीं किया। यदि मनमोहन सरकार के खिलाफ सीधा जनमत तैयार हो रहा था तो कांग्रेस को गांधी वटवृक्ष से बाहर लाकर अपने भीतर बदलाव का संदेश देना चाहिए था। जिसका जिक्र ज्योतिरादित्य ने अपने उद्बोधन में किया है। यही वह जड़ता रही जिसे कांग्रेस के बुजुर्ग नेताओं ने हटने नहीं दिया। क्योंकि कांग्रेस के आला नेता अपनी राजनीतिक छवि को बनाए रखने के लिए गांधी परिवार से बाहर किसी को स्थापित होने के लिए स्वतंत्र नहीं कर सकते थे जिससे सबसे ज्यादा नुकसान हुआ।

कांग्रेस की इसी जड़ता का सबसे ज्यादा फायदा भाजपा के सबसे बड़ा चेहरा बनकर उभर रहे नरेंद्र मोदी को मिला। वे सीधे तौर पर कांग्रेस के इतिहास और वर्तमान पर हमले करते रहे। यानी वे सीधे जड़ पर वार करने की रणनीति से कभी डिगे नहीं। अपनी पहली पारी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के भीतर और विदेशों में कांग्रेस के परिवारवाद पर जितना हमला बोला जनमत उतना ही उनके पक्ष में मजबूत हुआ।

कांग्रेस इसे भी हल्के से ही लेती रही। उसे लगने लगा कि 2016 में नोटबंदी और 2017 में जीएसटी के बाद देश में जो हालात निर्मित हुए इसका फायदा उसे बैठे बिठाए मिल जाएगा पर ऐसा नहीं हुआ। ना ही ऐसा संभव था। लोग कांग्रेस से पूरी तरह विमुख हो चुके थे। उनके जेहन में यह साफ बैठ चुका था कि कांग्रेस एक पारिवारिक राजनीतिक पार्टी है जिसमें दूसरा नेतृत्व कभी नहीं उभर सकता।

इसी जड़ता की वजह से 2019 के चुनाव भी कांग्रेस के लिए लाभकारी साबित नहीं हो सका। उल्टे उसकी स्थिति ज्यादा कमजोर हुई। चुनाव परिणाम के बाद राहुल गांधी ने हार की जिम्मेदारी लेकर अपना त्यागपत्र सौंप दिया। पर इस त्यागपत्र के बाद भी कांग्रेस में नया नेतृत्व स्पष्ट नहीं हो सका। इधर इसके विपरित भारतीय जनता पार्टी ज्यादा स्थिर, कठोर नेतृत्व और स्पष्ट नीति के साथ ज्यादा मजबूत होती रही।

फिलहाल जिस तरह के हालात हैं उससे लगता नहीं कि कांग्रेस अपनी स्थिति को सुधार पाए? इसमें सबसे बड़ी वजह उसके नेतृत्व के संबंध में अनिर्णय की स्थिति। जब तक नेतृत्व स्पष्ट और अनुशासित नहीं होगी तब तक संगठन के छितराव को रोक पाना असंभव है। चूंकि यह संघर्ष एक संगठित और अनुशासित राजनीतिक संगठन के विरुद्ध है जिसका नेतृत्व पूरी तरह से लोकतांत्रिक परिलक्षित हो रहा है।

कांग्रेस को अपनी जड़ता से बाहर आने की जरूरत है। इसके लिए उसे अपने ही संगठन के उन चेहरों को अच्छी तरह से देखना होगा जिनके बूते आगे संगठन को बढ़ाया जा सके। जिसके लिए हिंदुस्तान के जनमानस में यह स्पष्ट करना होगा कि यह उस वट के आश्रय से बाहर है जिस पर फिलहाल भरोसे का संकट खड़ा है। हिंदुस्तान की राजनीति में मजबूती के साथ कांग्रेस का होना बेहद अनिवार्य है।

भले ही फिलहाल कांग्रेस कमजोर दिखाई दे रही है पर सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी इसे हल्के से नहीं लेना चाहती। उसे पता है कि विरोधी अभी कमजोर है इसी कमजोरी के दौरान उसकी जड़ों पर वार करके जड़ता से युक्त दल को नेस्तनाबुत किया जा सकता है। इससे बचने के लिए कांग्रेस को अपने संगठन की ताकत को मजबूत करना ही होगा।

ऐसा नहीं हुआ तो हिंदुस्तान के सामने सबसे पुराना और सबसे बड़ा राजनैतिक विकल्प हमेशा के लिए कमजोर हो जाएगा। इसके लिए कठोर अनुशासन का पैमाना और राजनैतिक इच्छाशक्ति के बूते सिरे से संगठन को अपनी विचारधारा के साथ खड़ा करना होगा। केवल सत्ता की सतही कार्यशैली से अब जनता का विश्वास अर्जित कर पाना आसान नहीं है।

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