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राजनीति के दंभ में जीत—हार के पल—पल बदलते मायनें…

त्वरित टिप्पणी / सुरेश महापात्र

मैं देश के कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद की बस इसी टिप्पणी को पूर्ण और अंतिम मानता हूं ‘कुर्सी के लिए चोर दरवाजे से देश की वित्तीय राजधानी पर कब्जा करने की कोशिश की गई।’ हिंदुस्तान के इतिहास के पन्नों पर कई ऐतिहासिक क्षण लिपिबद्ध हैं उनमें से आज महाराष्ट्र में देवेंद्र फड़नसीस के दुबारा मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने का दृश्य भी शामिल हो गया है।

बीते 12 नवंबर को महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव के बाद भी सरकार का गठन नहीं हो पाने के बाद राज्यपाल की अनुशंसा पर केंद्रीय कैबिनेट ने मुहर लगाई और राष्ट्रपति ने अधिसूचना जारी कर राष्ट्रपति शासन लगाने की घोषणा कर दी। ठीक इसके 12 दिनों बाद आधी रात एक बार फिर महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी ने महाराष्ट्र में पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस द्वारा बहुमत की सरकार बनाए जाने के दावे के समर्थन में राष्ट्रपति शासन हटाने की अनुशंसा केंद्र को भेज दी। इसके बाद आज सुबह 8 बजे देवेंद्र फड़नवीस महाराष्ट्र के दुबारा मुख्यमंत्री बन गए। जब तक देश में लोगों की आंखे खुलती और वे चाय की कप लेकर न्यूज चैनल पर झांकना शुरू किया तब तक देश की वित्तीय राजधानी में भाजपा ने अपना राज घोषित करवा लिया।

अब यह कतई महत्वपूर्ण नहीं है कि इसके लिए किसने किस राह से कैसे अपनी सत्ता कायम की। बल्कि यह संपूर्ण घटनाक्रम अब हिंदुस्तान की राजनीति का एक अध्याय बन चुका है। यदि ऐसा नहीं होता तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वह घोषणा थोथी साबित होती जिसमें उन्होंने विधानसभा के परिणाम के बाद ऐलान किया था कि महाराष्ट्र में देवेंद्र फड़नवीस और हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर दुबारा सीएम पद संभालेंगे। केंद्रीय गृहमंत्री और भाजपा में नंबर दो अमित शाह की बस इतनी ही जिम्मेदारी थी कि मोदी की जुबान से निकले शब्द को अमल कर दिया जाए…। और उन्होंने कर दिया।

फडणवीस सीएम, अजित बने डिप्टी सीएम


 

यदि लोग राजनीति का मायने समझते हों तो ऐसा करने में किसी को दिक्कत नहीं होनी चाहिए… भला राजनीति में कोई किसी को बताकर थोड़े ही चकित कर सकता है। अनहोनी को जो होनी करके दिखाए वही सही मायने में बाजीगर है। हां, अब यह भाजपा की जिम्मेदारी है कि जिस तरह से उन्होंने अपनी सत्ता स्थापित की है उसे विधानसभा के पटल पर कायम रख कर भी दिखलाएं…

महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार की ताकत कभी कमजोर नहीं पड़ी। इस चुनाव में ऐसा लगने लगा था पर वे अपने बूते एक सम्मानजनक स्कोर तक पार्टी और गठबंधन को पहुंचाने में कामयाब हुए। उनकी कामयाबी यह भी रही जब शिवसेना के साथ भाजपा गठबंधन में विभेद के स्वर शुरू हुए तो वे मौके को पूरी नफासत के साथ सत्ता के मुख तक ले आने में कामयाब भी हो गए… बस एक कदम की दूरी पर मात खा गए…। उनका मात खाना कोई मामूली बात नहीं है।

इस पूरे पटकथा में कांग्रेस की हालत करी तो मरी ना करी तो मरी जैसी ही रही… अंत में भी उसकी स्थिति कमोबेश यही है। बस उसकी खुशी इतनी ही हो सकती है कि उनके विधायक फिलहाल उनके साथ खड़े दिख रहे हैं… सही मानें तो यह भी वक्त की ही बात है।
शनिवार की सुबह सोकर उठते ही समाचार पत्र का पन्ना पलटने वाले पाठकों के लिए न्यूज चैनलों से जो खबर दिखाई जा रही थी वह पूरी तरह उलट चुकी थी। अखबारों में शिवसेना के उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री बनने पर मुहर पर लाइव चैनल झूठला रहे थे जिसमें देवेंद्र फड़नवीस सीएम पद की शपथ लेते दिख रहे थे और इससे बड़ी खबर थी कि रांकापा के अजित पवार उपमुख्यमंत्री पद की शपथ लेते दिखे… शपथ अजित पवार ने ली और पूरी राजनीति शरद पवार को सवालों के घेरे में लेती दिख रही थी।

दोपहर में जब तक पूरी स्थिति साफ हुई तो सिवाए हालात की समीक्षा के लिए ज्यादा कुछ नहीं रह गया था। यानी राजनीति में जब तक पूरा चित्र ना बन जाए कयास नहीं लगाना चाहिए…। इस घटनाक्रम के साथ भाजपा—शिवसेना का 30 बरस पुराना गठबंधन खत्म हो गया है। शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे बीते 12 दिनों में बहुत कुछ खो चुके हैं। शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत के लोकतांत्रिक परंपरा को तोड़ने के बयान पर भाजपा की ओर से कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद का जवाब ही अंतिम और पूर्ण माना जाना चाहिए… कि भाजपा केंद्र में रहते हुए किसी भी कीमत पर देश की वित्तीय राजधानी मुंबई पर किसी दूसरे को हक जमाने का मौका नहीं दे सकती…।

अब क्या होगा?

महाराष्ट्र में फिलहाल भाजपा की सरकार है। मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस को 30 नवंबर तक विधान सभा में अपना बहुमत साबित करने का अवसर है।

तब तक शिवसेना, रांकापा और कांग्रेस को अपने विधायकों को संभालकर और सहेजकर रखना आसान काम तो कतई नहीं है। इस पूरे घटनाक्रम में अब कोई भी दल किसी के लिए राजनीतिक अछूत की संज्ञा से बाहर निकल चुका है। इसका नफा—नुकसान आने वाले वक्त में होगा या नहीं यह भी कहना कठिन है। इसलिए विधायकों को कर्नाटक की तर्ज पर टूटने से बचाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी कांग्रेस की है। यानी भाजपा के पास अवसरों की कोई कमी नहीं है।

रांकापा के सामने स्थिति?

रांकापा प्रमुख शरद पवार राजनीति के बड़े खिलाड़ी हैं पर चोट खा चुके हैं। ऐसे में उनके सामने दो स्थितियां हैं पहली कि अजित के साथ खड़े होकर अपनी इज्जत बचाएं या सीधे आर—पार की लड़ाई कर जैसा कहा था वैसा साबित करके दिखाएं… वे कर्नाटक के घटनाक्रम से बहुत कुछ सीख ही चुके होंगे। ऐसे में अब पार्टी के भीतर ही विभिषणों से जुझना उनके लिए बड़ी चुनौती है।

कांग्रेस क्या कर सकती है?

कांग्रेस को अपने विधायकों को सहेजकर रखना ही सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। कांग्रेस के खेमे में इस दौर में सबसे ज्यादा भगदड़ है। शीर्ष नेतृत्व भी कई मामलों में सहज निर्णय लेने की स्थिति में नहीं है। इसका खामियाजा कांग्रेस पहले भी भुगतती रही अब भी वही स्थिति है।

बहरहाल कानूनमंत्री रविशंकर प्रसाद ने साफ कर दिया है कि ‘वित्तीय राजधानी में किसी भी कीमत पर किसी दूसरे को मौका नहीं दिया जा सकता।’ इसे सभी चेतावनी मानकर चलेंगे तो ही परिणाम बदलेगा अन्यथा हो तो वही रहा है जैसा भाजपा चाहती रही है।

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