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बस्तर के हित में फैसला… उम्मीद से आगे कदम बढ़ाकर दिखाया सीएम भूपेश बघेल ने… मामला डिपाजिट 13 में अडानी के खनन के ठेके का…

  • ​त्वरित टिप्पणी / सुरेश महापात्र.

किसी मामले के उठे महज 120 घंटे हुए हों और सरकार ऐसा फैसला लेकर सामने आए जिससे उम्मीद जगे ऐसा कम ही होता है। पर ऐसा हुआ है छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल बस्तर इलाके में जहां किसी निजी कंपनी के लिए खोले गए दरवाजे पर सीएम स्वयं ताला लेकर खड़े दिखे हों। हां, यह उस फैसले पर ताला लगाने के समान ही है जिसमें बस्तर की खनिज संपदा को औने—पौने में एक साजिश के तहत किसी निजी कंपनी को देने की दुर्गंध समाई हो…

एनएमडीसी के डिपाजिट 13 को खनन के लिए 25 साल के अनुबंध पर अडानी की कंपनी अडानी इंटरप्राइजेस लिमि. को एनसीएल ने बीते दिसंबर 2018 में सौंप दिया था। एनसीएल यानी एनएमडीसी और सीएमडीसी की ज्वाइंट वेंचर कंपनी जिसे एनएमडीसी ने अपनी डिपाजिट का स्वामित्व सौंपा था।

एनसीएल छत्तीसगढ़ के हिसाब से एक क्रांतिकारी दूरगामी फैसला दिखाई देता है। पर इसके पर्दे के पीछे राज्य सरकार की मंशा को पढ़ना आसान तो कतई नहीं था। जिस दिन प्रधानमंत्री की मौजूदगी में एनएमडीसी और सीएमडीसी के मध्य एक समझौता हुआ था उस दिन इसे समझना कठिन था कि इसकी राह का दूसरा छोर कहां पहुंचता है। अब सब कुछ साफ—साफ दिखाई दे रहा है।

छत्तीसगढ़ सरकार के तत्कालीन मुखिया डा. रमन सिंह को इस बारे में जवाब देना चाहिए कि क्या उन्होंने बस्तर की खनिज संपदा को पिछले दरवाजे से निजी कंपनियों के हाथों में सौंपने का कुत्सित प्रयास किया था। या यह महज संयोग है कि एनसीएल के माध्यम से अडानी ने आयरन ओर माइनिंग की दिशा में अपना कदम ऐसे ही बढ़ा लिया।

बस्तर में कदम रखने से पहले जिस कंपनी के पास आयरन ओर माइनिंग का अनुभव नहीं था, उसे ऐसी कोई खदान खनन के लिए अनुबंध का मिल जाना ही कई सवालों को जन्म देता है। हां, यह भी सही है कि डिपाजिट 13 में खनन के लिए ग्राम सभा में जो गड़बड़ी की शिकायत सामने आई है उसके लिए अडानी की कंपनी को दोष नहीं दिया जा सकता।

इसके अलावा जिस प्रक्रिया द्वारा अडानी की कंपनी बैलाडिला के डिपाजिट 13 में खनन के विकास के लिए पहुंची उसमें तकनीकी खामी तो प्रत्यक्ष तौर पर दिखाई ही नहीं देती। सिर्फ एक बात स्वीकार करने के लायक नहीं है कि अगर इतना बड़ा अवसर आयरन ओर के खनन के लिए उपलब्ध था तो पहले से इस दिशा में ​सक्रिय कंपनियों ने इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई या ऐसा मौका ही नहीं दिया गया? यह बड़ा सवाल है।

खैर इस पर पहले भी काफी बात की जा चुकी है। अब सवाल है बैलाडिला की पहाड़ियों में उपजे असंतोष का और उसके निदान को लेकर सरकार के स्तर पर पहल का है।

जिस मामले को लेकर पूर्ववर्ती भाजपा सरकार दबे पांव चलकर डिफेंस में दिख रही थी। उसे भी यह उम्मीद तो कतई नहीं था कि हाल ही में ​बैठी भूपेश सरकार बस्तर के मसले पर इतनी तेज गति से आगे बढ़कर मामला संभाल लेगी। इस मामले में भाजपा की ओर से दो महत्वपूर्ण टिप्पणियां सामने आईं हैं जिसमें पहली टिप्पणी पूर्व सीएम डा. रमन सिंह की है जिसमें उन्होंने कांग्रेस सरकार पर पेड़ कटाई की अनुमति देने का आरोप लगाया।

दूसरी टिप्पणी भाजपा अध्यक्ष विक्रम उसेंडी की ओर से आई जिसमें उन्होंने भाजपा की ओर से आदिवासियों के पक्ष में खड़े होने का संकेत भर दिया। अफसोस जनक पहलू यह था कि पांच दिन से चल रहे आदिवासियों के इस महाप्रदर्शन में भाजपा के नेता पूरी तरह से नदारत रहे। यहां तक कि पूर्व सांसद दिनेश कश्यप और संभाग के वरिष्ठ मंत्री रहे केदार कश्यप दोनों की अनुपस्थिति बस्तर में बलीदादा की कमी का एहसास कराते रहे।

पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी और आम आदमी पार्टी के साथ सीपीआई का कैडर इस आंदोलन में पूरी तरह से सक्रिय रहा। दंतेवाड़ा कांग्रेस की ओर से देवती कर्मा, दीपक कर्मा ने अपना सक्रिय योगदान दिया। अगर यह नहीं होता तो दंतेवाड़ा में पुलिस प्रशासन ने यह मान लिया था कि डिपाजिट 13 के मामले में जो प्रदर्शन हो रहा है उसे नक्सली करवा रहे हैं। एक प्रकार से नक्सल की आड़ में बस्तर में होने वाले किसी प्रदर्शन को खारिज करने जैसा ही मामला रहा।

जिस प्रदर्शन में सत्तारूढ़ पार्टी के नेता और विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता सीधे तौर पर शामिल हो रहे हों उसे केवल नक्सलियों के दबाव में होने वाला प्रदर्शन कहते खारिज नहीं किया जा सकता है। भूपेश बघेल ने बस्तर के मर्म को बेहद संजीदा तरीके से पकड़ा। इससे पहले हालात बिगड़े एक बेहतर प्रशासक के तौर पर आम लोगों की आवाज बनने में देरी नहीं की।

यह भी देखने लायक बात है कि जिस दिन से बैलाडिला का मामला बाहर आया है तब से ही भूपेश बघेल लगातार बाहर बने हुए थे। सोमवार को लौटते ही एयरपोर्ट में जिस तरीके से उन्होंने सीधे पूर्व मुख्यमंत्री डा. रमन पर सवाल दागा कि वे पहले बताएं कि अडानी को देना है या नहीं…? यह दुखती नब्ज पर हाथ रखने जैसा ही था।

आंदोलन के बाद पहले उद्योग मंत्री उसके बाद बस्तर के कई विधायक गण और सोमवार को सांसद बस्तर ​दीपक बैज का बैलाडिला पहुंचकर आंदोलनकारियों से मिलकर संवाद करना संवाद से समाधान की ओर बढ़ते सरकार का कदम बता रहा है।

सोमवार को राजधानी पहुंचते ही मंगलवार को बस्तर के प्रतिनिधियों के साथ बैठक की पहल ने एक बड़ी लकीर खींच दी है। यह लकीर बस्तर के आदिवासियों का विश्वास जीतने वाली है। प्रदेश का मुखिया अब बस्तर के लोगों के साथ बैठकर, बातचीत के द्वारा मसले का हल ढूंढना चाहता है यह जताने की कोशिश है।

नक्सल प्रभावित बस्तर में जल—जंगल—जमीन को लेकर जिस तरह से विवाद पनपते रहे हैं उसके समाधान की दिशा में राज्य सरकार का फैसला दूरगामी परिणाम मूलक दिख रहा है। अब सवाल यह है कि अडानी के काम पर रोक लगाने के इस फैसले के बाद राज्य सरकार ने अपने हिस्से का काम तो कर दिया है पर मूल काम तो केंद्र सरकार के जिम्मे है। जिसके पास एनएमडीसी का दायित्व है।

आज भूपेश बघेल ने साफ कर दिया कि राज्य सरकार बस्तर में आदिवासियों की मंशा को लेकर केंद्र सरकार को जानकारी देना उचित समझा है। पूर्व सरकार की प्रक्रिया में त्रूटि अथवा गड़बड़ी की जांच के आदेश से भी साफ है कि बस्तर में ग्राम सभा के फैसले को लेकर सरकार ने बड़ा कदम उठा दिया है।

पांचवीं अनुसूची के मुद्दे पर सरकार का स्पष्ट संदेश आज के फैसले में दिख रहा है कि बस्तर में लागू कानून के पालन भूपेश बघेल की सरकार कोताही नहीं बरतना चाह रही है। यदि ऐसा हुआ तो आने वाले समय में बस्तर में औद्योगीकरण की गति पर भी प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। बहरहाल बस्तर के खुश होने का समय है। राज्य सरकार ने बस्तर के जनादेश का स्पष्ट तौर पर सम्मान किया है। जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।

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